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चंद्रदेव से मेरी बातें (कहानी-सारांश)
(बंग महिला) राजेन्द्र बाला घोष
चंद्रदेव से मेरी बातें कहानी की लेखिका राजेन्द्र बाला घोष उर्फ बंग महिला हैं । पत्रात्मक शैली (प्रविधि) में लिखी ‘चंद्रदेव से मेरी बातें ‘कहानी सर्वप्रथम निबंध रूप में हिन्दी की कालजयी पत्रिका ‘सरस्वती’ में 1904 ई० में प्रकाशित हुई थी । बाद में इसे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी के रूप में प्रकाशित किया गया । इस कहानी में लेखिका संवादात्मक शैली में चंद्रदेव से बातें करती है, जिसमें वह लार्ड कर्जन को प्रतीक बनाकर उन पर व्यंग्य करती हैं, कहानी के केंद्र में ‘अर्थनीति और राजनीति’ को रखा गया है । कहानी के दो मुख्य पात्र हैं – लेखिका और चंद्रदेव ।
लेखिका परिचय – राजेन्द्र बाला घोष
राजेन्द्र बाला घोष मूलतः ‘बंगाली’ थीं, और ये बँगला भाषा में ये ‘प्रवासिनी’ नाम से लिखा करती थीं | हिन्दी जगत् में इन्होंने ‘बंग महिला’ नाम से रचनाएँ कीं । आरंभिक दौर की महिला कथाकारों में इनका नाम प्रमुख है । इनकी सबसे प्रमुख कहानी ‘दुलाई वाली’ (१९०७) है, जो ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी ।
जन्म – १८८२ |
स्थान – वाराणसी |
पिता – रामप्रसन्न घोष |
माता – नीदरवासिनी घोष |
पति – पूर्णचंद्र देव |
बचपन का नाम – रानी और चारूबाला |
साहित्यिक नाम- बंग महिला |
प्रसिद्ध नाम – राजेन्द्र बाला घोष |
कृतियाँ –
चंद्रदेव से मेरी बातें (१९०४) |
कुम्भ में छोटी बहू (१९०६) |
दुलाईवाली (१९०७) ‘सरस्वती’ में प्रकाशित |
भाई-बहन (१९०८) ‘बाल प्रभाकर’ में प्रकाशित |
दलिया (१९०९) |
हृदय परीक्षा (१९15) सरस्वती में प्रकाशित |
इन कहानियों के अतिरिक्त इनकी कविताएँ, निबंध बँगला से हिन्दी भाषा में इनके द्वारा अनूदित किए गए, जिन्हें इनके ‘कुसुम संग्रह’ (१९११) में संकलित कर प्रकाशित किया गया ।
प्रथम कहानी –
इनकी प्रथम कहानी कौन-सी है इस सम्बन्ध में मतभेद है, क्योंकि ‘चंद्रदेव से मेरी बातें’ जो १९०४ में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुई, कतिपय विद्वान् इसे कहानी नहीं निबंध विधा की रचना घोषित करते हैं ।
‘लक्ष्मी सागर वैष्णव’ जी ने अपने ‘नवनीत’ निबंध में लिखा है कि, चंद्रदेव से मेरी बातें’ कहानी नहीं ‘निबंध’ रचना है ।
चंद्रदेव से मेरी बातें (कहानी)
लेखिका – बंग महिला
भगवान चंद्रदेव! आपके कमलवत कोमल चरणों में इस दासी का अनेक बार प्रणाम। आज मैं आपसे दो चार बातें करने की इच्छा रखती हूँ। देखो, सुनी-अनसुनी सी मत कर जाना। अपने बड़प्पन की ओर ध्यान देना। अच्छा! कहती हूँ, सुनों.. ।
मैं सुनती हूँ कि, आप इस आकाश मंडल में चिरकाल से वास करते हैं । क्या यह बात सत्य है ? यदि सत्य है ? तो मैं अनुमान करती हूँ कि, इस सृष्टि के साथ ही साथ अवश्य आपकी भी सृष्टि हुई होगी । तब तो आप ढेर दिन के पुराने, बूढ़े कहे जा सकते हैं । यह क्यों ? क्या आपके डिपार्टमेंट (महकमे) में ट्रांसफर (बदली) होने का नियम नहीं है ? क्या आपकी ‘गवर्नमेंट’ पेंशन भी नही देती ? बड़े खेद की बात है ? यदि आप हमारी न्यायशील गवर्नमेंट के किसी विभाग में सर्विस करते होते तो, अब तक आपकी बहुत कुछ पदोन्नति हो गई होती । और ऐसी पोस्ट पर रहकर भारत के कितने ही सुरम्य नगर, पर्वत, जंगल और झाड़ियों में भ्रमण करते। अंत में इस वृद्ध अवस्था में पेंशन प्राप्त कर काशी जैसे पुनीत और शान्ति-धाम में बैठकर हरि नाम स्मरण करके अपना परलोक बनाते ।
यह हमारी बड़ी भारी भूल हुई भगवान् चंद्रदेव! क्षमा कीजिए, आप तो अमर हैं; आपको मृत्यु कहाँ ? तब परलोक बनाना कैसा ? ओहो! देवता भी अपने जाति के कैसे पक्षपाती होते हैं । देखो न चंद्रदेव को अमृत देकर उन्होंने अमर कर दिया- तब यदि मनुष्य होकर अंग्रेज अपने जाति वालों का पक्षपात करें तो आश्चर्य ही क्या है ? अच्छा, यदि आपको अंग्रेज जाति की सेवा करना स्वीकार हो तो, एक एप्लीकेशन (निवेदन पत्र) हमारे आधुनिक भारत प्रभु ‘लार्ड कर्जन’ के पास भेज देवें ।
आशा है कि, आदरपूर्वक आपको अवश्य आह्वान करेंगे। क्योंकि आप अधम भारतवासियों के भांति कृष्णांग तो हैं ही नहीं, जो आपको अच्छी नौकरी देने में उनकी गौरांग जाति कुपित हो उठेगी । और फिर, आप तो एक सुयोग्य, कार्यदक्ष, परिश्रमी, बहुदर्शी, कार्यकुशल और सरल स्वभाव महात्मा हैं । मैं विश्वास करती हूँ, कि जब लार्ड कर्जन हमारे भारत के स्थाई भाग्य विधाता बनकर आवेंगे, तब आपको किसी कमीशन का मेम्बर नहीं तो किसी मिशन में भर्ती करके वे अवश्य ही भेज देवेंगे क्योंकि, उनको कमीशन और मिशन, दोनों ही, अत्यंत प्रिय हैं।
आपके चंद्रलोक में जो रीति और नीति सृष्टि के आदि काल में प्रचलित थे वे ही सब अब भी हैं। पर यहाँ तो इतना परिवर्तन हो गया है कि भूत और वर्तमान में आकाश पातल का सा अंतर हो गया है। मैं अनुमान करती हूँ कि, आपके नेत्रों की ज्योति भी कुछ अवश्य ही मंद पड़ गई होगी । क्योंकि आधुनिक भारत का संतान लड़कपन से ही चश्मा धारण करने लगी है; इस कारण आप हमारे दीन, हीन, क्षीणप्रभ भारत को उतनी दूर से भलीभाँति न देख सकते होंगे। अतएव आपसे सादर कहती हूँ कि, एक बार कृपाकर भारत को देख तो जाइए यद्यपि इस बात को जानती हूँ कि आपको इतना अवकाश कहाँ ? पर आठवें दिन नहीं, तो महीने में एक दिन, अर्थात् अमावस्या को, तो आपको ‘हॉलिडे’ (छुट्टी) अवश्य ही रहती है। यदि आप उस दिन चाहे तो भारत भ्रमण करने जा सकते हैं।
इस भ्रमण में आपको कितने ही नूतन दृश्य देखने को मिलेंगे। जिसे सहसा देखकर आपकी बुद्धि जरुर चकरा जाएगी । यदि आपसे सारे हिन्दोस्तान का भ्रमण शीघ्रता के कारण न हो सके तो, केवल राजधानी कलकत्ता को देख लेना तो अवश्य ही उचित है। वहाँ के कल-कारखानों को देखकर आपको यह अवश्य ही कहना पड़ेगा कि, यहाँ के कारीगर तो विश्वकर्मा के भी लड़कदादा निकले। यही क्यों, आपकी प्रिय सहयोगिनी दामिनों, जो मेघों पर आरोहण करके आनंद से अठखेलियाँ किया करती हैं वह बेचारी भी यहाँ मनुष्य के हाथों का खिलौना हो रही हैं।
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भगवान् निशानाथ! जिस समय आप अपनी निर्मल चन्द्रिका को बटोर मेघमाला अथवा पर्वतों की ओट से सिन्धु के गोद में जा सकते हैं, उस समय यही नीरद-वासनी, विश्वमोहिनी, सौदामिनी, अपनी उज्जवल मूर्ति से आलोक प्रदान कर, रात को दिन बना देती हैं। आपके देवलोक में जितने भी देवता हैं उनके वाहन भी उतने हैं- किसी का गज, किसी का हंस, किसी का बैल, किसी का चूहा इत्यादि। पर यहाँ तो सारा बोझ आपकी चपला और अग्नि देव के माथे मढ़ा गया है। क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या वैश्य, क्या शुद्र, क्या चाण्डाल, सभी के रथों का वाहन वही हो रही है।
हमारे श्वेतांग महाप्रभु गण को, जहाँ पर कुछ कठिनाई का सामना आ पड़ा, झट उन्होंने इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) को ला पटका। बस कठिन से कठिन कार्य सहज में सम्पादन कर लेते हैं। और हमारे यहाँ के उच्च शिक्षा प्राप्त युवक काठ के पुतलों की भाँति मुँह ताकते रह जाते हैं। जिस व्योमवासिनी विद्युत देवी को स्पर्श तक करने का किसी व्यक्ति का साहस नहीं हो सकता, वही आज पराये घर में आश्रिता नारियों की भाँति ऐसे दबाव में पड़ी है, कि वह चूं तक नहीं कर सकती। क्या करे ? बेचारी के भाग्य में विधाता ने दासी-वृति ही लिखा था।
हरिपदोद्भवा त्रैलोक्यपावनी सुरसरी के भी खोटे दिन आए हैं, वह भी अब स्थान-स्थान में बंधनग्रस्त हो रही है। उसके वक्षस्थल पर जहाँ-तहाँ मोटे वृहदाकार खम्भ गाड़ दिए गए हैं। कलकता आदि को देखकर आपके देवराज सुरेन्द्र भी कहेंगे कि, हमारी अमरावती तो इसके आगे निरी फीकी-सी जान पड़ती है। वहाँ ईडन गार्डन तो पारिजात परिशोभित नन्दन कानन को भी मात दे रहा है। वहाँ के विश्वविद्यालय के विश्वश्रेष्ठ पंडितों की विश्वव्यापीनी विद्या को देखकर वीणापाणी सरस्वती देवी भी कहने लग जाएगी, कि निःसंदेह इन विद्या दिग्गजों की विद्या चमत्कारिणी हैं।
वहीं के फोर्ट विलियम के फौजी सामान को देखकर, आपके देव सेनापति कार्तिकेय बाबू के भी छक्के छूट जायेंगे। क्योंकि देव सेनापति महाशय देखने में खास बंगाली बाबू से जँचते हैं। और उनका वाहन भी एक सुन्दर मयूर है। बस इससे, उनके वीरत्व का भी परिचय खूब मिलता है। वहाँ के मिंट (टकसाल) को देखकर सिंधुतनया आपकी प्रिय सहोदरा कमला देवी तथा कुबेर भी अकचका जायेंगे।
भगवान् चंद्रदेव! इन्हीं सब विश्वम्योत्पादक अपूर्व दृश्यों का अवलोकन करने के हेतु आपको सादर निमंत्रित तथा सविनय आहूत करती हूँ। सम्भव है कि, यहाँ आने से आपको अनेक लाभ भी हों। आप जो अनादि काल से निज उज्ज्वल वपु में कलंक की कालिमा लेपन करके कलंकी शशांक, शशधर, शाशालांछान आदि उपाधि-मालाओं से भूषित हो रहे हैं। सिंधु तनया होने पर भी जिस कालिमा को आप आज तक नहीं धो सके हैं, वहीं आजन्म-कलंक शायद यहाँ के विज्ञानविद पण्डितों की चेष्टा से छूट जाए। जब बम्बई में स्वर्गीय महारानी विक्टोरिया देवी की प्रतिमूर्ति से काला दाग छुड़ाने में प्रोफेसर गज्जर महाशय फलीभूत हुए हैं, तब क्या आपके मुख की कालिमा छुड़ाने में वे फलीभूत न होंगे?
शायद आप पर यह बात भी अभी तक विदित नहीं हुई कि, आप और आपके स्वामी सूर्य भगवान् पर जब हमारे भूमंडल की छाया पड़ती हैं, तभी आप लोगों पर ग्रहण लगता है। पर आपका तो अब तक, वही पुराना विश्वास बना हुआ है कि, जब कुटिल ग्रह राहु आपको निगल जाता है तभी ग्रहण होता है। पर ऐसा थोथा विश्वास करना आप लोगों की भारी भूल है। अतः हे देव! मैं विनय करती हूँ कि, आप अपने हृदय से इस भ्रम को जड़ से उखाड़कर फेंक दें। अब भारत में आपके, और न आपके स्वामी भुवनभास्कर सूर्य महाशय के ही वंशधरों का साम्राज्य है और न अब भारत की वह शस्यश्यामला स्वर्ण प्रसूतामूर्ति ही है। अब तो आप लोगों के अज्ञात, एक अन्य द्वीपवासी परम शक्तिमान, गौरांग महाप्रभु इस सुविशाल भारत-वर्ष का राज्य वैभव भोग रहे हैं।
अब तक मैंने जिन बातों का वर्णन आपसे स्थूल रूप में किया वह सब इन्हीं विधा विशारद गौरांग प्रभुओं के कृपा कटाक्ष का परिणाम है। यों तो यहाँ प्रतिवर्ष पदवी दान के समय कितने ही राज्य विहीन राजाओं की सृष्टि हुआ करती है, पर आपके वंशधरों में जो दो चार राजा-महाराजा नाम मात्र के हैं भी, वे काठ के पुतलों की भांति हैं। जैसे उन्हें उनके रक्षक नचाते हैं, वैसे ही वे नाचते हैं। वे इतनी भी जानकारी नहीं रखते कि, उनके राज्य में क्या हो रहा है-उनकी प्रजा दुखी है, या सुखी?
यदि आप कभी भारत-भ्रमण करने को आयें तो अपने ‘फैमिली डॉक्टर’ धन्वन्तरि महाशय को और देवताओं के ‘चीफ जस्टिस’ चित्रगुप्त’ जी को साथ अवश्य लेते आएं। आशा है कि, धन्वन्तरी महाशय यहाँ के डॉक्टरों के सन्निकट चिकत्सा संबंधी बहुत कुछ शिक्षा का लाभ कर सकेंगे। यदि प्लेग महाराज (ईश्वर न करे) आपके चंद्रलोक या देवलोक में घुस पड़े तो, वहाँ से उनको निकालना कुछ सहज बात न होगी।
यहीं जब चिकित्सा शास्त्र के बड़े-बड़े पारदर्शी उन पर विजय नहीं पा सकते, तब वहाँ आपके देवलोक में जड़ीबूटियों के प्रयोग से क्या होगा ? यहाँ के ‘इण्डियन पिनल कोड’ की धाराओं को देखकर चित्रगुप्त जी महाराज अपने यहाँ की दण्ड विधि (कानून) को बहुत कुछ सुधार सकते हैं। और यदि बोझ न हो तो यहाँ से वे दो चार ‘टाईपराइटर’ भी खरीद ले जाए। जब प्लेग महाराज के अपार अनुग्रह से उनके ऑफिस में कार्य की अधिकता होवे, तब उससे उनकी ‘राइटर्स बिल्डिंग’ के राइटर्स के काम में बहुत ही सुविधा और सहायता पहुँचेगी। वे लोग दो दिन का काम दो घंटे में कर डालेंगे।
अच्छा, अब मैं आपसे विदा लेती हूँ। मैंने तो आपसे इतनी बातें कही, पर खेद है, आपने उनके अनुकूल या प्रतिकूल एक बात का भी उत्तर नहीं दिया। परन्तु आपके इस मौनावलम्बन को स्वीकार का सूचक समझती हूँ। अच्छा तो मेरी प्रार्थना को कबूल करके एक दफा यहाँ आइएगा जरुर ।
बंग महिला (राजेन्द्रबाला घोष), सस्वती पत्रिका में 1904 ई० में प्रकाशित
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