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आदिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ

by हिन्दी ज्ञान सागर
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आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ

आदिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ

 

आदिकालीन साहित्य में उपलब्ध होने वाली प्रवृत्तियाँ तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखी जानी चाहिए | इस काल में प्रमुख रूप से रासो साहित्य की रचना हुई अतः आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ रासो साहित्य की प्रवृत्तियाँ ही मानी जा सकतीं हैं |

इन ग्रंथों में पाई जाने वाली आदिकाल की प्रवृत्तियों का विवेचन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है –

  • ऐतिहासिकता का महत्त्व
  • युद्ध-वर्णन में सजीवता
  • संकुचित राष्ट्रीयता
  • आश्रयदाताओं की प्रशंसा
  • प्रामाणिकता में संदेह
  • कल्पना की प्रचुरता
  • वीर एवं शृंगार रस की प्रधानता
  • शृंगारिकता
  • डिंगल-पिंगल भाषा का प्रयोग
  • अलंकारों का स्वाभाविक समावेश
  • विविध छंदों का प्रयोग

 

ऐतिहासिकता का महत्त्व –

 

रासो साहित्य के चरित्र-नायक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, किन्तु इन काव्य-ग्रंथों में तथ्य कम हैं, कल्पना अधिक है, परिणामतः अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियाँ उत्पन्न होती हैं |

 

इन ग्रंथों के रचयिताओं ने जो वर्णन किए हैं, वे तत्कालीन इतिहास से मेल नहीं खाते | घटनाओं, नामावली, तिथियों का जो विवरण रासो काव्यों में उपलब्ध होता है, वह इतिहास सम्मत नहीं है | ऐतिहासिक चरित्र-नायकों को लेकर लिखे गए काव्य ग्रथों में जिस सावधानी की अपेक्षा की जाती है, उससे ये नितांत विमुख रहे हैं |

 

परिणामतः इन ग्रंथों से किसी ऐतिहासिक तथ्य एवं सत्य का उदघाटन नहीं होता | इतिहास में अतिशयोक्ति से बचा जाता है, जबकि चारण कवियों ने अतिशयोक्ति को प्रमुखता देते हुए काल्पनिक वर्णन किए हैं, यही कारण है कि, इन ग्रंथों में ऐतिहासिकता का अभाव है |

युद्ध-वर्णन में सजीवता –

 

रासो ग्रन्थ में किए गए युद्ध वर्णन सजीव प्रतीत होते हैं | इन काव्य ग्रंथों में जहाँ-जहाँ युद्ध-वर्णन के प्रसंग हैं, वहाँ-वहाँ ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कवि युद्ध का आँखों देखा हाल सुना रहा है |

 

चारण कवि लेखन कौशल में ही नहीं अपितु युद्ध कौशल में भी पारंगत थे, इसलिए युद्ध के दृश्यों को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था | अतः इन युद्ध-वर्णनों में जो कुछ भी कहा गया है, वह उनकी अपनी वास्तविक अनुभूति है | इन युद्ध-प्रसंगों में कवि की कल्पना का चमत्कार न होकर वीर हृदय के उच्छ्वासों का स्पंदन है |

 

तत्कालीन परिस्थितियों के कारण युद्ध एक अनिवार्य आवश्यकता थी | अतः एक ऐसे वर्ग की अपेक्षा राजाओं को रहती थी, जो वीरों को युद्ध के लिए प्रोत्साहित कर सके | चारण कवि इसी आवश्यकता की पूर्ति करते थे | पृथ्वीराज रासो अपने युद्ध वर्णनों के कारण भी एक सशक्त रचना मानी जाती है |

 

संकुचित राष्ट्रीयता –

 

इस काल में वीरता का वर्णन तो बहुत हुआ, परन्तु इसमें स्वदेशाभिमान एवं राष्ट्रीयता की भावना का अभाव है | उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था और इन राज्यों के शासक अपने छोटे से राज्य को ही राष्ट्र समझते थे |

 

पड़ोसी राज्य पर विदेशी आक्रमण होने पर ये रंचमात्र भी विचलित नहीं होते थे | इसी संकुचित राष्ट्रीयता के कारण धीरे-धीरे सभी देशी साम्राज्य विदेशी आक्रन्ताओं द्वारा पददलित किए जाते रहे |

 

आश्रयदाताओं की प्रशंसा –

 

रासो ग्रंथों के रचयिता चारण कहे जाते थे और अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में काव्य रचना करना अपना परम कर्त्तव्य मानते थे |

दरबारी कवि होने के कारण अपने चरित्र नायक की श्रेष्ठता शौर्य, यश, वैभव एवं प्रतिपक्षी राजा की हीनता कर अतिशयोक्ति करना इन चारणों की प्रमुख विशेषता कही जा सकती है |

 

पृथ्वीराज रासो एवं खुमाण रासो इसी कोटि की प्रशंसापरक काव्य रचनाएँ हैं, जिनमें कवि ने अपने चरित्र नायक को राम, कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन और हरिश्चंद्र से भी श्रेष्ठ बताते हुए प्रत्येक दृष्टि से उनकी महत्ता प्रतिपादित की है |

 

प्रामाणिकता में संदेह –

 

आदिकाल के अधिकांश रासो कवियों की प्रामाणिकता संदिग्ध है | पृथ्वीराज रासो जो इस काल की प्रमुख रचना बताई गई है, वह भी अप्रमाणिक बताई गई है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – [blockquote align=”none” author=””]”इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि, यह पूरा ग्रन्थ वास्तव में जाली है |”[/blockquote] इसी प्रकार खुमाण रासो और परमाल रासो की प्रामाणिकता में भी संदेह है |

 

कल्पना की प्रचुरता –

 

चारण कवियों की प्रचुरता तथ्यपरक न होकर कल्पना प्रधान हैं, ऐतिहासिक पात्र तो इन रचनाओं में हैं, पर इतिहास नाममात्र को ही है |

कवियों ने कल्पना का सहारा लेते हुए घटनाओं, नामावलियों एवं तिथियों तक की कल्पना कर ली है | वस्तुतः इन रासो काव्यों में संभावना और कल्पना पर अधिक बल दिया गया है, तथ्यों पर कम |

 

अपने आश्रयदाता की वीरता का काल्पनिक वर्णन करने में इन्होंने अतिशयोक्ति का सहारा लिया है और इसी क्रम में इतिहास सत्य की अवहेलना भी कर दी है | इन वीरगाथाओं को इसी कारण से काल्पनिक कथा युक्त रचनाएँ कहना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है |

 

वीर एवं शृंगार रस की प्रधानता –

 

रासों ग्रंथों में यद्यपि सभी रसों का समावेश हुआ है, तथापि वीर एवं शृंगार रस की प्रधानता इनमें परिलक्षित होती है | युद्धों का वर्णन होने से वीर रस की योजना इनमें अनायास ही हो गई है |

 

वीरों के मनोभाव एवं अदम्य उत्साह का जैसा हृदयग्राही वर्णन रासो काव्य में किया गया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है | पृथ्वीराज रासो में ऐसे अनेक मर्मस्पर्शी स्थल हैं, जहाँ वीर रस का पूर्ण परिपाक हुआ है |

 

उदाहरण –

[blockquote align=”none” author=””]उद्वि राज पृथीराज बाग मनो लग्ग नट |
कढ़त तेग मन वेग लखत मनो बीज भट्ट घट्ट ||[/blockquote]

 

शृंगारिकता –

 

वीरता के साथ शृंगारिकता की प्रवृत्ति आदिकाल की उल्लेखनीय विशेषता थी | इस काल में संयोग-शृंगार का चित्रण अधिक हुआ है |

संयोग-शृंगार के वर्णन की दृष्टि से निम्नलिखित उदाहरण बेमिशाल हैं –

 

[blockquote align=”none” author=””]मनहु कला ससिभान कला सोलह सो बन्निय |
कुट्टिल केश सुदेस पौहुप रचियत पिक्क सद ||[/blockquote]

 

युद्ध शौर्य-प्रदर्शन के लिए तथा सुन्दर राजकुमारियों से विवाह करने के निमित्त लड़े जाते थे | अतः शृंगार रस के भावपूर्ण वर्णनों का समावेश भी इन काव्य ग्रंथों में हो गया |

 

डिंगल-पिंगल भाषा का प्रयोग –

 

आदिकालीन रासो साहित्य में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है, वह आधुनिक हिंदी से बहुत भिन्न है | अपभ्रंश और राजस्थानी भाषा के जिस मिले-जुले रूप का प्रयोग चारण कवियों ने रासों ग्रंथों में किया है, उसे डिंगल नाम दिया गया है |

 

इसी प्रकार तत्कालीन अपभ्रंश और ब्रजभाषा के मेल से बनी भाषा को पिंगल कहा जाता है, जिसका प्रयोग भी इन ग्रंथों में किया गया है |

 

अलंकारों का स्वाभाविक समावेश –

 

रासो साहित्य में अलंकारों का स्वाभाविक समावेश हुआ है, चारण कवियों ने अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए अलंकारों का सहारा लिया है, कहीं भी चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकार योजना नहीं की गई है |

उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का जैसा हृदयग्राही चित्रण इन काव्य ग्रंथों में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है |

 

विविध छंदों का प्रयोग –

 

रासो ग्रंथों में छंदों की विविधता परिलक्षित होती रही, छंदों की यह विविधता हिंदी के न तो परवर्ती साहित्य में मिलती है, न पूर्ववर्ती साहित्य में |

 

पृथ्वीराज रासो में अनेक छंदों का प्रयोग हुआ है, यथा- दोहा, गाथा, पद्धरी, तोमर. टोटक, रोला, उल्लाला, साटक, कुण्डलिया आदि छंदों की विविधता के कारण ही चंदबरदाई को ‘छंदों का सम्राट’ और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को ‘छंदों का अजायबघर’ कहा जाता है |

 

आदिकाल में ‘आल्हा छंद’ (31 मात्रा) का बहुत प्रचलन था | यह वीर रस का प्रसिद्ध छंद था, इसके अतिरिक्त दोहा, रासा, तोमर, नाराच, पद्धति, पज्झटिका, अरिल्ल इत्यादि छंदों प्रयोग आदिकालीन साहित्य में देखने को मिलता है |

अपभ्रंश में 15 मात्राओं का एक ‘चउपई’ छंद मिलता है | हिंदी ने ‘ ‘चउपई’ में एक मात्रा बढ़ाकर ‘चौपाई’ के रूप में इसे अपनाया अर्थात् चौपाई 16 मात्राओं का छंद है |

 

चौपाई के साथ दोहा रखने की पद्धति ‘कड़वक’ कहलाती है | कड़वक का प्रयोग आगे चलकर भक्तिकाल में जायसी और तुलसी ने किया | आदिकाल में आल्हा (31 मात्रा) का व्यापक प्रचलन था जो वीर रस का लोकप्रिय छंद था |

 

अब इन्हें पढ़ें –

आदिकाल की परिस्थितियाँ

हिंदी साहित्य का कालविभाजन एवं नामकरण

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