अनुक्रमणिका
(आदिकालीन साहित्य की परिस्थितियाँ एवं विशेषताएँ)
भूमिका –
आदिकाल साहित्य की परिस्थितियाँ –
साहित्य मानव-समाज के विविध भावों एवं नित नवीन रहने वाली चेतना की अभिव्यक्ति है | अतः उसके प्रेरक तत्त्व के रूप में मनुष्य के परिवेश का बहुत महत्त्व है | किसी काल विशेष के साहित्य की जानकारी से तद्युगीन मानव-समाज को समग्रतः जाना जा सकता है |
दूसरे शब्दों में किसी भी काल के साहित्येतिहास को समझने के लिए उस परिवेश को ठीक प्रकार से समझना आवश्यक होता है, इसी दृष्टि से आदिकालीन साहित्य के इतिहास के साथ तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानना अति आवश्यक है |
हिंदी साहित्य का आदिकाल आचार्य राम चंद्र शुक्ल जी के अनुसार ''संवत् 1050 वि. सं. से लेकर 1375 तक माना जाता है| '' कुछ अन्य विद्वान् यथा - डॉ० रामकुमार वर्मा ने आदिकाल का समय 8 वीं से 14 वीं शती तक स्वीकार किया है | आदिकाल की समय सीमा के सन्दर्भ में विविध मत
आदिकाल साहित्य की परिस्थितियाँ –
आदिकाल के साहित्य को लेकर हमारे समक्ष राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक परस्थितियाँ उभर कर आती हैं, जिनका उल्लेख निम्नलिखित है –
1. (आदिकाल की राजनीतिक परिस्थिति)
राजनीतिक दृष्टि से यह युद्ध और अशान्ति का काल था | आदिकाल की राजनीतिक परिस्थिति सम्राट हर्ष वर्द्धन की मृत्यु ( संवत् 704 वि. सं. ) के उपरान्त उनके साम्राज्य के पतन से आरम्भ होती है | अंतिम वर्द्धन सम्राट हर्षवर्द्धन के समय से ही उत्तरी भारत पर यवन आक्रमण आरम्भ हो गए थे |
हर्ष वर्द्धन ने दृढ़ता से उनका सामना किया, किन्तु आक्रमणों की उस आंधी को वह रोक न सका, उसकी समस्त शक्ति उस प्रतिरोध में ही समाप्त हो गई और वर्द्धन साम्राज्य भी लड़खड़ा उठा |
हर्ष वर्द्धन की मृत्यु से भारत की संगठित सत्ता के खंड-खंड हो जाने की सूचना जैसे मौकापरस्त राजाओं को मिली तो, तदनन्तर वे राजपूत राज्य सामने आए, जो निरंतर युद्धों की आग में जलते-जलते अंततः शक्तिक्षीण हो गए थे और विदेशी आक्रांतों का डटकर मुकाबला करने की स्थिति में नहीं रह गए थे |
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी तक के भारतीय इतिहास की राजनीतिक परिस्थिति हिंदी सत्ता के धीरे-धीरे क्षय होने तथा इस्लाम सत्ता के धीरे-धीरे उदय होने की करुण कहानी है | इसी ने उस मनः स्थिति को जन्म दिया था, जिसमें कोई भी एक प्रवृत्ति साहित्य में प्रधान न हो सकी |
भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर विदेशी आक्रमणों का भय बराबर बना रहता था | 10 वीं शताब्दी में महमूद गजनवी ने और 12 वीं शती में मुहम्मद गौरी ने भारत को पदाक्रांत किया | जनता विदेशी आक्रमणकारियों से त्रस्त थी ही, साथ ही युद्धकामी देशी राजाओं के अत्याचारों को भी सहन करने को विवश थी |
यवन शक्तियों के आक्रमण का प्रभाव मुख्यतः पश्चिम एवं मध्य देश पर ही पड़ा, इन्हीं क्षेत्रों की जनता युद्धों एवं अत्याचारों से आक्रान्त हुई |
धीरे-धीरे समस्त हिंदी प्रदेश में स्थित राज्यों – दिल्ली, कन्नौज, अजमेर आदि पर मुसलमानों का अधिकार हो गया |
आदिकाल के इस युद्ध प्रभावित जीवन में कहीं भी संतुलन नहीं था | जनता पर विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों के साथ-साथ युद्धकामी देशी राजाओं के अत्याचारों का क्रम भी बढ़ता गया | वे परस्पर लड़ने लगे और प्रजा पीड़ित होने लगी | ये युद्ध अकारण ही लड़े जाते थे, कभी-कभी तो शौर्य प्रदर्शन मात्र के लिए भी युद्ध किए जाते थे |
पृथ्वीराज चौहान, जयचंद, परमार्दिदेव आदि की पारस्परिक लड़ाइयाँ अंतहीन कथाएँ बनती गयीं | फलतः जनता में एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ, जो साहस और वीरता के साथ लड़ते हुए जीना चाहता था, तो एक दूसरा वर्ग भी पनपा जो विनाशशीलता देख-देख कर संसारेतर बातें सोचने को बाध्य था |
अराजकता, गृहकलह, विद्रोह, आक्रमण और युद्ध के वातावरण में यदि एक कवि आध्यात्मिक जीवन की बातें कर रहा था, तो दूसरा मरते-मरते भी जीवन का रस भोग लेना चाहता था | एक तीसरा कवि भी था, जो तलवार के गीत गाकर गौरव के साथ जीना चाहता था |
यही आदिकाल की राजनीतिक परिस्थिति की विचित्र देन है, जिसके फलस्वरूप यदि स्त्री-भोग, हठयोग से लेकर आध्यात्मिक पलायन और उपदेशों तक का साहित्य एक ओर लिखा गया तो दूसरी ओर ईश्वर की लोक कल्याणकारी सत्ता में विश्वास करने, लड़ते-लड़ते जीने और संसार को सरस बनाने की भावना भी साहित्य-रचना के मूल में सन्निहित हुई |
राजनीतिक परिस्थितियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि, 8 वीं शती से 14 वीं शती तक का यह काल खण्ड युद्ध, संघर्ष एवं अशांति से ग्रस्त रहा | राजाओं में संकुचित राष्ट्रीयता थी, व्यापक रूप से समूचे भारत को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देखा गया |
2. (आदिकाल की धार्मिक परिस्थिति) –
इस काल में अनेक प्रकार के धार्मिक मत-मतान्तरों का अस्तित्त्व था | भारतीय धर्म साधना में उथल-पुथल मची हुई थी | वैदिक एवं पौराणिक धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म भी इस काल में अपना प्रभाव जमाने में प्रयासरत् थे |
ईसा की छठी शताब्दी तक आदिकाल का धार्मिक वातावरण अशांत था | विभिन्न सम्प्रदायों में परस्पर मेलजोड़ बढ़ने लगा था | वैदिक यज्ञ, मूर्तिपूजा तथा जैन एवं बौद्ध उपासना-पद्धतियाँ एक साथ चल रहीं थीं | किन्तु सातवीं शताब्दी के साथ आदिकाल के धार्मिक परिस्थितियों में परिवर्तन आरंभ हुआ |
इस समय अलवार और नयनार संत दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर एक धार्मिक आंदोलन लेकर आए | 642 ई. में जब ह्वेनसांग ने दक्षिण भारत की यात्रा की तो, वहाँ बौद्ध धर्म के पतन की झलक पाकर वह बहुत दुःखी हुआ था |
उत्तर भारत में भी इस समय तक यह प्रभाव आ रहा था | वैष्णव मत इस समय तक अधिक प्रतिष्ठित नहीं था, अतः जनता में या तो जैन मत सम्मान पा रहा था या शैव मत | परिणाम यह हुआ कि, शैव और जैन मत आगे बढ़ने की होड़ में परस्पर टकराने लगे |
बारहवीं शताब्दी तक वैष्णव आंदोलन तीव्र होने लगा था और शैव आंदोलन ने भी नया रूप ले लिया था | फलतः जैन मत के प्रचारकों की शक्ति घटने लगी थी | राजपूत अहिंसामूलक मतों में विशवास नहीं करते थे | उन पर शैव मत का प्रभाव अधिक था |
डॉ० ईश्वरी प्रसाद के विचार से इस समय राजपूत शौर्य के उदय का कारण ब्राह्मण धर्म की विजय पताका सर्वत्र फहरा रही थी | किन्तु साथ ही यह भी सत्य कि, बौद्ध धर्म भी रूप बदल-बदल कर अपनी जड़ें गहरी करने के लिए प्रयत्नशील था |
उसकी महायान शाखा के मंत्र-तंत्र, जादू-टोने, ध्यान-धारणा आदि के अनेक प्रभाव निम्न स्तर के हृदयों पर छाए हुए थे | जनता हुंदु साधुओं की जितनी प्रतिष्ठा करती थी, उतनी ही प्रतिष्ठियाँ बौद्ध संन्यासियों की भी थी | इनके प्रभाव से मनुष्यों में आत्मविश्वास की कमी होती जा रही थी |
शैव साधकों का बढ़ता हुआ प्रभाव इस दिशा में और अधिक सहायक हुआ | वे जनता को चौरासी लाख योनियों में भटकने का भय दिखा कर निरूत्साहित करने लगे थे | धार्मिक स्थानों की दुर्दशा हो चली थी | व्यभिचार, आडम्बर, अर्थ-लोभ आदि जिन दोषों का बौद्ध विहारों में प्राधान्य हो गया था, हिन्दू मंदिर भी ग्रस्त हो चले थे | पुजारी एवं महंत धर्म के सच्चे स्वरूप से अपरिचित थे तथा अधिकार एवं धन का प्रलोभन प्रबल हो चला था |
सोमनाथ मंदिर पर किए गए आक्रमण में महमूद की सफलता से जहां एक ओर शैव एवं जैन संघर्ष की सूचना मिलती है, वहीं उससे मंदिरों में बढ़े हुए विलास एवं धन-संग्रह का पर्दा खुलता है |
देशव्यापी धार्मिक अशांति के इस काल में एक बाहरी धर्म इस्लाम का प्रवेश भी काम महत्त्व नहीं रखता है ब| अशिक्षित जनता के सामने अनेक धार्मिक राहें बनती जा रहीं थीं, किन्तु राह दिखाने वाले ईमानदार नहीं थे |
बौद्ध संन्यासी यौगिक चमत्कारों का प्रभाव दिखा रहे थे | वैदिक एवं पौराणिक मतों के समर्थक खंडन-मंडन की भूलभुलैया में पड़े थे | उधर जैन धर्म पौराणिक आख्यानों को नए ढंग से गढ़ कर जनता की आस्थाओं पर नया प्रभाव जमा रहा था | वैष्णवों की धार्मिक कथाएँ जैन कथाएँ बनती जा रही थी |
वैष्णवों के राम और कृष्ण, जिन्होंने पौरुष में विश्वास करके युद्ध को भी धर्म का अंग सिद्ध किया था, जैन धर्म की दीक्षा लेते हुए दिखाए जाने लगे थे | उधर बौद्धों का वामाचार जैन आश्रमों में प्रविष्ट हो चला था |
कुल मिलाकर विभिन्न धर्मों के मूल रूप लुप्त हो चले थे तथा यह कहना कठिन हो गया था कि, किसी धर्म की निश्चित साधना पद्धति का स्वरूप क्या है | हाँ! मतिभ्रम का अंत करने वाली दार्शनिक लहर दक्षिण भारत से अवश्य आ रही थी, जिसके प्रचारक शंकराचार्य थे |
उनके अद्वैतवाद का प्रचार उत्तर भारत को एक नई प्राणवायु दे रहा था | यह वायु बढ़ती ही गई |
रामानुज, निम्बार्क आदि आचार्यों ने ज्ञान और भक्तिप्रधान आध्यात्मिकता का प्रसार किया, किन्तु जनजीवन पर पंद्रहवीं शताब्दी के अंत से पूर्व उसका प्रभाव अधिक गहरा रंग नहीं ला सका | तात्पर्य यह है कि, आदिकाल की धार्मिक परिस्थितियां अत्यंत विषम तथा असंतुलित थी |
जनमानस पर गहरा असंतोष, क्षोभ तथा भ्रम छाया हुआ था | कवियों ने इसी मानसिक स्थिति के अनुरूप खंडन-मंडन, हठयोग, वीरता एवं शृंगार का साहित्य लिखा |
3. (आदिकालीन साहित्य की सामाजिक परिस्थिति) –
पूर्वोक्त राजनीतिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का देश की सामाजिक परिस्थितियों पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ रहा था | जनता शासन तथा धर्म दोनों ओर से निराश्रित होती जा रही थी | युद्धों के समय उसे बुरी तरह पीसा जाता था | वह ईश्वर की ओर दौड़ती थी , सर्वत्र भ्रम और असहाय की स्थिति मिलती थी |
जाति-पाति के बंधन कड़े होते जा रहे थे | उच्च वर्ण के लोग भोग करने के लिए थे तथा निर्धन वर्ण के लोग मानो श्रम करने के लिए ही पैदा हुए थे | नारी भी भोग्या मात्र रह गयी थी | वह क्रय-विक्रय एवं अपहरण की वस्तु बनती जा रही थी |
सामान्य जान के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी | साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने की कारण साहित्य और शास्त्र का ज्ञान सामान्य जाति की नारियों व पुरुषों के लिए अप्राप्य बना दिया था |
सती प्रथा भी इस समय के समाज का एक भयंकर अभिशाप थी | फलतः सामान्य जाति की नारी के लिए पुरुष का जीवन और मृत्यु दोनों ही भयंकर घटना बन जाते थे | अनेक प्रकार के अंधविश्वास बढ़ते जा रहे थे | साधु-संन्यासियों के शापों और वरदानों की ओर लोगों की दृष्टि रहने लगी थी |
योगियों का गृहस्थों पर भयंकर आतंक छाया हुआ था | जीवनयापन के साधन दुर्लभ होते जा रहे थे तथा निर्धनता सदा घेरे रहती थी | भाँति -भाँति के पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र तथा जप-तप करके भी लोग दुर्भिक्ष, युद्ध तथा महामारियों के संकट नहीं टाल पाते थे |
सामाजिक परिस्थिति की इस विषमता में मानसिक शान्ति की ओर बढ़ा सकें | हिंदी के कवियों को जनता की इस स्थिति के अनुसार काव्य रचना की सामग्री जुटानी पड़ी |
4. (आदिकाल की सांस्कृतिक परिस्थिति) –
हिंदी साहित्य का आदिकाल उस समय आरम्भ हुआ, जब भारतीय संस्कृति उत्कर्ष के चरम शिखर पर आरूढ़ हो चुकी थी | और जब उसने भक्तिकाल को अपना दायित्त्व सौंपा, उस समय भारत में मुस्लिम संस्कृति के स्वर्ण शिखर स्थापित होने लगे थे |
कालांतर में मुस्लिम आक्रमणकारियों के आगमन से भारत शनैः-शनैः मुस्लिम संस्कृति से भी प्रभावित होता गया | इस काल में आक्रमणकारियों ने अपने संकीर्ण दृष्टिकोण एवं धर्मान्धता की भावना से प्रेरित होकर भारतीय के मूल केंद्रों मंदिरों, मठों एवं विद्यालयों को नष्ट करने का पूरा-पूरा प्रयास किया |
इस प्रकार आदिकाल को दो संस्कृतियों के संक्रमण एवं ह्रास विकास की गाथा कहा जा सकता है |
हिन्दुओं की स्थापत्य कला धार्मिक भावना से ओतप्रोत थी तथा अत्यंत उच्चकोटि की थी | प्रसिद्ध अरब इतिहासकार अलबरूनी भारतीय कलाओं में धार्मिक भावनाओं की ऐसी व्यापक अभिव्यक्ति देखकर चकित रह गया था |
उसने लिखा था -[blockquote align=”none” author=””] “वे (हिन्दू) कला के अत्यंत उच्च सोपान पर आरोहण हो चुके हैं | हमारे लोग (मुसलमान) जब उन्हें (मंदिर आदि को) देखते हैं, तो आश्चर्यचकित रह जाते हैं | वे न तो उनका वर्णन ही कर सकते हैं, न वैसा निर्माण कर सकते हैं |”[/blockquote]
महमूद गजनवी भी भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता पर मुग्ध हुआ था | शास्त्रों एवं कलाओं के अनुशीलन में तल्लीन तत्कालीन जन-जीवन उसके लिए ईर्ष्या का विषय बन गया था | किन्तु, देश के भाग्य की विडम्बना यह रही कि, शताब्दियों से श्रेष्ठता की साधना में तल्लीन वह महमूद जैसे आक्रांताओं की विजयाकांक्षा का कोपभोजन बन गया और शताब्दियों तक उस कोप से मुक्ति न मिली |
राजपूत राजाओं ने प्रतिरोध के लिए युद्ध तो किए, किन्तु अपनी रक्षा का ध्येय बहुत कम समय तक प्रधान रहा | उनके लिए राज्य एवं व्यक्तिगत गौरव की रक्षा का नशा अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया |
यद्यपि फारस और अरब के आठवीं-नवीं शताब्दी से तसव्वुफ का प्रचार हो रहा था, किन्तु आदिकाल के अंत तक भी भारत में उसका पूर्ण प्रभाव न आ सका | यहां जो आक्रांता आए, वे तसव्वुफ़ की उदार भावना के समर्थक नहीं थे | इसलिए इस्लाम का वह तत्त्व, जो संघर्षरत दो जातियों में उदारता पैदा करता, भारतीय संस्कृति का पोषक तत्त्व न बन सका |
स्पष्टतः दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे के सामने मानसिक तनाव की स्थिति में खड़ी एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखती रहीं | आदिकाल में भारतीय संस्कृति का जो स्वरूप मिलता है, वह परम्परागत गौरव से विच्छिन्न तथा मुस्लिम संस्कृति के गहरे प्रभाव से निर्मित है |
तत्कालीन जनजीवन के हर स्वरूप पर इस संस्कृति की व्यापक छाप मिलती है | उत्सव, मेले, परिधान, आहार, विवाह, मनोरंजन आदि सब में मुस्लिम रंग मिल गया है | संगीत, चित्र,वास्तु एवं मूर्ति-कलाओं पर ऐसा पर्दा मिलता है, जिसके भीतर भारतीय परम्परा धीरे-धीरे क्षय होती गयी है |
मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव आदिकालीन हिंदु संस्कृति पर अनेक क्षेत्रों में पड़ने लगा था | दूसरी ओर हिन्दू संगीतकला, वास्तुकला, आयुर्वेद एवं गणित का प्रभाव मुस्लिम संस्कृति पर पड़ने लगा |
यह निष्कर्ष निकाल लेना इस दशा में असंगत न होगा कि, आदिकालीन भारतीय संस्कृति परम्परा से विच्छिन्न होकर मुस्लिम संस्कृति के गहरे प्रभाव को स्वीकार करती जा रही थी |
5. (आदिकाल का साहित्यिक वातावरण) –
इस काल (आदिकाल) में साहित्यिक रचना की तीन धाराएं बह रही थीं | प्रथम धारा संस्कृत साहित्य की थी, जो एक परंपरा के साथ विकसित होती जा रही थी | दूसरी धारा का साहित्य प्राकृत एवं अपभ्रंश में लिखा जा रहा था | तीसरी धारा हिंदी भाषा में लिखे जाने वाले साहित्य की थी |
नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक कन्नौज एवं कश्मीर संस्कृत-साहित्य रचना के केंद्र रहे और इस बीच अनेक आचार्य, कवि, नाटककार, तथा गद्य लेखक उत्पन्न हुए | आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, कुंतक, क्षेमेन्द्र,भोजदेव, मम्मट, राजशेखर, विश्वनाथ, भवभूति, श्रीहर्ष तथा जयदेव इसी युग की देन हैं |
इसी काल (हिंदी साहित्य का आदिकाल) में शंकर, कुमारिलभट्ट, भास्कर, रामानुज आदि आचार्य हुए | संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत एवं अपभ्रंश का श्रेष्ठ साहित्य भी प्रभूत मात्रा में इसी युग में लिखा गया |
जैन आचार्यों ने मध्य प्रदेश के पश्चिमी सीमान्त क्षेत्र में रह कर संस्कृत के पुराणों को नए रूपों में प्रस्तुत किया | उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए प्राकृत, एवं अपभ्रंश के साथ पुरानी हिंदी को भी माध्यम बनाया | इसी प्रकार पूर्वी सीमान्त पर सिद्धों ने अपभ्रंश के साथ लोकभाषा हिंदी की रचनाओं में प्रस्तुत किया |
आदिकाल का साहित्य स्पष्टतः राजा, धर्म और लोक के तीन आश्रमों में विभाजित हो चुका था | इनकी भाषाएं भी प्रायः निश्चित हो चुकी थीं | संस्कृत मुख्यतः राज प्रवृत्ति को सूचित करती थी, अपभ्रंश धर्म की भाषा बन गयी थी तथा ‘हिंदी’ जनता की मानसिक स्थितियों एवं भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थी |
संस्कृत के कवियों एवं लेखकों को तत्कालीन परिस्थितियाँ अधिक प्रभावित नहीं करती थीं | वे काव्य और शास्त्र के विनोद में ही अपनी रचनात्मक प्रतिभा का उपयोग कर रहे थे | प्राकृत तथा अपभ्रंश के कवि एवं लेखक धर्मप्रचार में लगे हुए थे | साहित्य का तत्त्व उनकी रचनाओं का सहायक अंग था मुख्य नहीं | केवल हिंदी ही इस काल की ऐसी भाषा थी, जिसमें तत्कालीन परिस्थितियों की प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में मुखर हो रही थी |