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हिन्दी साहित्य के इतिहास की लेखन परंपरा
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत कैसे हुई? कौन-कौन सी पद्धतियां हिंदी साहित्य के लेखन में अपनायीं गयीं ? इनके बारे में जानने से पहले ये जानना उचित रहेगा कि, इतिहास शब्द का अर्थ क्या है ? क्या इसकी विशेषताएँ हैं, कहाँ से इतिहास ग्रंथों की लेखन परंपरा की वास्तविक शुरुआत मानी जाती है ? इसके बाद इतिहास ग्रन्थ पद्धति, लेखन परंपरा व हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों के बारे में विस्तार से जानेंगे |
इतिहास अर्थ और परिभाषाएँ :-
इतिहास शब्द (इति+ह+आस) से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – ‘ऐसा ही हुआ’ है | शाब्दिक अर्थ को देखें तो पता चलता है कि, इतिहास का सम्बन्ध अतीत से होता है और इसमें वास्तविक घटनाओं का सन्निवेश होता है |
साहित्य का इतिहास दर्शन :-
हिन्दी साहित्य के इतिहास के समानार्थक ‘हिस्ट्री’ (History) शब्द का प्रयोग यूनानी विद्वान् हेरोडोटस (456-445) ने किया | हेरोडोटस ने इतिहास के चार प्रमुख लक्षण निर्धारित करते हुए बताया कि –
- इतिहास एक वैज्ञानिक विधा है अर्थात् इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है |
- मानव जाति से यह सम्बंधित होता है, अतः यह एक मानवीय विधा है |
- यह तर्कसंगत विधा है, क्योंकि इसके तथ्य और निष्कर्ष प्रमाणों पर आधारित होते हैं |
- यह शिक्षाप्रद विधा है, क्योंकि यह अतीत के आलोक में भविष्य पर प्रकाश डालता है |
परिभाषाएँ :-
इटैलियन विद्वान् विको ने इतिहास को केवल अतीत से सम्बद्ध न मानकर उसे वर्तमान से सम्बंधित किया |
जर्मन विद्वान् कांट (1724-1804) ने इतिहास की नई व्याख्या करते हुए प्रतिपादित किया कि “प्रत्यक्ष जगत् की वस्तुओं का विकास उसके प्राकृतिक इतिहास के समकक्ष रहता है | बाह्य प्रगति उन आंतरिक शक्तियों की कलेवर मात्र होती है | यह एक निश्चित नियमानुसार मानव जगत् में कार्यशील रहती है |”
हीगल (1770-1831) ने इतिहास दर्शन पर गंभीरता से विचार करते हुए कांट की ही विचारधारा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया | उनके अनुसार ‘इतिहास केवल घटनाओं का अन्वेषण या संकलन मात्र नहीं है, बल्कि उसके अंदर कारण-कार्य की शृंखला विद्यमान है |
पाश्चात्य साहित्य के क्षेत्र में अनेक विद्वानों ने साहित्य के विकास प्रक्रिया के सम्बन्ध में कुछ सामान्य सिद्धांतों की स्थापना का प्रयास किया है | जिसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत तेन महोदय (फ्रेंच इतिहासकार) का है | तेन महोदय ने साहित्य के विकास की व्याख्या के तीन आधारभूत सूत्र बताए है – , जाति, वातावरण, क्षण |
तेन का मानना था कि, ये तीनों सूत्र जातीय परंपरा, राष्ट्रीय वातावरण तथा समय विशेष की परिस्थितियों के सूचक हैं | अतः साहित्य के इतिहास को समझने के लिए इन तीनों को समझना अति आवश्यक है |
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि, इतिहास का अध्ययन एवं विश्लेषण युगीन चेतना एवं साहित्यकार की वैयक्तिक प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में किया जाना चाहिए |
पढ़ें : – हिन्दी साहित्य : काल विभाजन एवं नामकरण
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की पद्धतियाँ :-

हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन हेतु अनेक पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है –
१. वर्णानुक्रम पद्धति/अकारादि क्रम –
इस पद्धति को ‘वर्णमाला पद्धति’ भी कहा जाता है | इस पद्धति में लेखकों एवं कवियों का परिचय उनके नामों के वर्णों के क्रम में दिया जाता है | जैसे – डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी (न, ह, क्रम) इस पद्धति में कालक्रम अलग-अलग होने के बाद भी लेखकों का नाम एक वर्ण से शुरू होने के कारण उन्हें एक साथ रखा जाता है | जैसे – कबीर व केशव | दोनों के नाम ‘क’ अक्षर से तो हैं, परन्तु कालक्रम भिन्न है |
‘शिव सिंह सेंगर’ एवं ‘गार्सां द तासी’ ने इस पद्धति का प्रयोग किया है | इस प्रकार के प्रयास का श्रेय ‘गार्सां द तासी’ नामक फ्रांसीसी विद्वान् को जाता है | उन्होंने फ्रेंच भाषा में हिन्दी साहित्य का इतिहास ‘इस्तवार द ला लित्येत्यूर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’ नाम से लिखा | इसमें उन्होंने अकारादि क्रम का प्रयोग किया है जिसमें पहला कवि अंगद है और अंतिम कवि हेमंत पंत है | यह सिद्धांत पुराने जमाने में पश्चिम में चलता था|
२. कालानुक्रमी पद्धति :-
यह विधि अपेक्षाकृत उत्तम और प्रशंसनीय है | इसका सर्वप्रथम प्रयोग ‘डॉ. ग्रियर्सन’ ने अपने इतिहास के ग्रन्थ ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में किया | इस पद्धति में कवियों एवं लेखकों का विवरण ऐतिहासिक कालक्रमानुसार तिथिक्रम से होता है | रचनाकार की जन्मतिथि को आधार बनाकर इतिहास ग्रन्थ में उनका क्रम निर्धारित किया जाता है | ‘जॉर्ज ग्रियर्सन’ व ‘मिश्रबंधुओं’ ने इस पद्धति का प्रयोग किया है |
३. वैज्ञानिक पद्धति :-
इस पद्धति में इतिहास लेखक पूर्णतः तटस्थ रहकर तथ्यों का संकलन करता है | तथ्यों को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित करके प्रस्तुत करता है | इस पद्धति में क्रमबद्धता तथा तथ्यों की पुष्टता अनिवार्य है | वैज्ञानिक पद्धति भी दोषपूर्ण है, क्योंकि इतिहास लेखन तथ्यों का नहीं, बल्कि व्याख्या व विश्लेषण की माँग करता है | अतः विश्लेषण अनिवार्य है |
४. विधेयवादी पद्धति :-
यह पद्धति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है | इस पद्धति के जन्मदाता फ्रेंच इतिहासकार तेन थे | तेन महोदय ने इस पद्धति को तीन शब्दों में बांटा है |
१. जाति २. वातावरण ३. क्षण
इस पद्धति से इतिहास लिखने की परंपरा की शुरुआत ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल’ ने की | इसमें उन्होंने कवियों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण तद्युगीन परिस्थितियों एवं परिप्रेक्ष्य में किया | साहित्य के इतिहास को परिभाषित करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं कि –
”प्रत्येक देश साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है| तब यह निश्चित है कि, जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है| आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है |”
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा एवं
प्रमुख हिन्दी साहित्य इतिहास ग्रन्थ
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का वास्तविक सूत्रपात 19 वीं शताब्दी से माना जाता है | मध्यकाल में भी कुछ रचनाएं जैसे – चौरासी वैष्णव की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता, भक्तमाल इत्यादि मिलती हैं, परन्तु इनमें कालक्रमानुसार वर्णन नहीं मिलता | अतः इन्हें हिन्दी सहित्य के इतिहास ग्रन्थ के अंतर्गत शामिल नहीं किया जा सकता |
(इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी) गार्सां द तासी :-
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा की वास्तविक शुरुआत ‘गार्सां द तासी’ ने की जो कि एक फ्रेंच विद्वान् थे | उनकी इस लेखन परंपरा की शुरुआत उनके द्वारा रचित ग्रन्थ ‘इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’ से हुई | यह दो भागों में रचित है | इसके प्रथम भाग का प्रकाशन 1839 ई. व द्वितीय भाग का प्रकाशन 1847 ई. में हुआ |
इस ग्रन्थ में पहली बार हिंदी काव्य के इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जिसमें हिन्दी और उर्दू के विभिन्न 738 कवियों को वर्ण क्रमानुसार स्थान मिला है | इनमें 72 हिन्दी के कवि सम्मिलित किए गए थे | इस ग्रन्थ का सर्वाधिक महत्त्व यह है कि यह हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास है | डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय ने तासी के इतिहास ग्रन्थ का अनुवाद (हिन्दुई साहित्य का इतिहास) नाम से 1952 ई. में किया था |
डॉ. नगेन्द्र ने इनके विषय में कहा है कि- ”कवियों को कालक्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम में प्रस्तुत करना, काल विभाजन, युगीन प्रवृत्तियों का अभाव और हिंदी ,उर्दू कवियों को घुला-मिला देना त्रुटिपूर्ण है | अनेक न्यूनताओं के होते हुए भी इतिहास लेखन की परंपरा के प्रवर्तक के रूप में ‘गार्सां द तासी’ को हिंदी साहित्य के सर्वप्रथम इतिहासकार का गौरव प्राप्त है |
विशेषताएँ :-
गार्सां द तासी – ‘इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी’ (1839 ई. प्रथम भाग, 1847 ई. द्वितीय भाग ) की विशेषताएँ निम्न हैं –
- फ्रेंच भाषा में लिखित हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास ग्रन्थ
- अंग्रेजी वर्णक्रम का पालन
- हिन्दी उर्दू के लगभग 738 कवियों का परिचय (हिंदी के 72, शेष उर्दू के)
- प्रधान कवियों की जीवनी व काव्य-ग्रन्थ
- काल-विभाजन नहीं
- साहित्यिक प्रवृत्तियों की चर्चा नहीं
- उक्त इतिहास ग्रन्थ में ‘ऐन्दुई’ हिन्दवी (हिंदी) के लिए तथा ऐन्दुस्तानी हिन्दुस्तानी (उर्दू) के लिए प्रयुक्त हुआ है |
हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थ
गार्सां द तासी से पूर्व हिन्दी साहित्य इतिहास ग्रन्थ :-
‘गार्सां द तासी’ से पूर्व ‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ (गोकुलनाथ) ‘दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता’ (गोकुलनाथ) ‘भक्तमाल’ (नाभादास) ‘गुरुग्रंथ साहब’ (गुरु गोविन्द सिंह) ‘गोसाईं चरित्र, भक्तनामावली, कविमाला (संग्राहकार तुलसी) ‘कालिदास हजारा’ (कालिदास त्रिवेदी द्वारा संकलित) सत्कवि गिरा विलास (बलदेव बघेलखंडी) कवि नामावली, ‘राग सागरोद्भव राग कल्पद्रुम’ (कृष्णानंद व्यासदेव) शृंगार-संग्रह (कवि सरदार द्वारा संगृहीत) इत्यादि 17 वीं से 19 वीं शती तक रचित ऐसी रचनाएँ हैं, जिनमें कवियों के जीवन वृत्त और कृतित्त्व का उल्लेख मिलता है, लेकिन ये ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं हैं | क्योंकि इन ग्रंथों में वह विशेषताएं नहीं हैं जो एक साहित्य इतिहास ग्रन्थ में होनी चाहिए |
शिव सिंह सरोज – (शिव सिंह सेंगर)
इतिहास लेखन की परंपरा से जुड़ी दूसरी रचना ‘शिव सिंह सरोज’ है | शुक्ल जी के अनुसार जिसकी रचना ‘शिव सिंह सेंगर’ ने 1883 ई. में की | लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय इसका रचनाकाल 1877 ई. व माता प्रसाद गुप्त 1878 ई. मानते हैं | हिंदी साहित्य इतिहास की लेखन परम्परा का यह द्वितीय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ था जबकि, किसी भारतीय विद्वान द्वारा रचित यह प्रथम हिंदी साहित्य इतिहास ग्रन्थ था |
शिव सिंह सरोज –
शिव सिंह सेंगर हिंदी कवियों के प्रथम वृत्त-संग्रहकार थे इन्होंने, शिव सिंह सरोज में लगभग एक सहस्र (१०००) कवियों का जीवन चरित उनकी कविताओं के उदाहरण सहित पहली बार प्रस्तुत किया | ‘गार्सां द तासी’ के ग्रन्थ के अनुकरण के आधार पर रचित यह रचना कवियों के जन्मकाल और रचनाकाल को समाहित किए हुए भी विद्वानों की दृष्टि में प्रशंसनीय नहीं है |
लगभग एक सहस्र कवियों का उनकी रचनाओं के साथ सोदाहरण परिचय प्रस्तुत करने की दृष्टि से शिव सिंह सेंगर का इतिहास ग्रन्थ परवर्ती साहित्यकारों के लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ, इसमें कोई संदेह नहीं है | यह ग्रन्थ हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रस्थान बिंदु है |
शिव सिंह सेंगर – शिव सिंह सरोज (1983 ई.) ग्रन्थ की विशेषताएँ निम्न हैं –
- लगभग एक हजार कवियों के जीवन चरित एवं उनके काव्य का उदाहरण
- कवियों का जन्मकाल (जीवनचरित) रचनाकाल एवं कविताओं का सोदाहरण विवेचन
- हिंदी भाषा में लिखित हिंदी का प्रथम साहित्येतिहास ग्रन्थ
- भारतीय विद्वान् द्वारा रचित प्रथम साहित्येतिहास ग्रन्थ
- हिंदी कवियों का प्रथम वृत्त संग्रह
- इसमें 839 क्रमांक देते हुए 1003 कवियों का उल्लेख है |
जॉर्ज ग्रियर्सन (‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’)
‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ 1889 ई. जॉर्ज ग्रियर्सन की कृति है, जिसका प्रकाशन एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’ की पत्रिका के विशेषांक के रूप में हुआ | इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद 1957 ई. ‘हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास’ शीर्षक से डॉ. किशोरी लाल गुप्त ने किया | हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थ लेखन परंपरा में यह ग्रन्थ कई दृष्टियों ने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ साबित हुआ |
अनेक विद्वानों ने इस ग्रन्थ को वास्तविक अर्थों में साहित्य का प्रथम इतिहास माना है | क्योंकि इस ग्रन्थ में पहली बार कवियों और लेखकों (कुल 952 कवि ) को कालक्रम में वर्गीकृत किया गया है, साथ ही उनकी प्रवृत्तियों पर भी प्रकाश डाला गया है |
काल विभाजन और प्रवृत्ति-निरूपण में ग्रियर्सन की दृष्टि बहुत स्पष्ट व तर्कसंगत न होते हुए भी पहली बार हिंदी कवियों और लेखकों का कालक्रम से वर्गीकरण, कृतियों का कालखंडों में विभाजन, विभिन्न कालों की काव्यप्रवृत्तियों का विवेचन, सांस्कृतिक परिस्थितियों एवं प्रेरणास्रोतों के उद्घाटन इत्यादि अनेक दृष्टियों से ग्रियर्सन का इतिहास ग्रन्थ स्तुत्य है |
जॉर्ज ग्रियर्सन :-
ग्रियर्सन महोदय ने अपने ग्रन्थ में केवल हिन्दी कवियों को ही शामिल किया है | उन्होंने ‘गार्सां द तासी’ व शिव सिंह सेंगर के द्वारा के द्वारा एकत्र सामाग्री का उपयोग करते हुए अपने ग्रन्थ को और भी प्रामाणिक बनाने का प्रयास किया | इन्होने हिंदी साहित्य को ग्यारह (11) खण्डों में बांटा, इस ग्रन्थ में प्रत्येक खंड काल विशेष के सूचक हैं, जिनमें चारण काव्य, धार्मिक काव्य, प्रेम काव्य आदि का आभास होता है |
इस कृति में भक्ति काल को स्वर्ण काल कहने की सुन्दर उक्ति मिली है | हालांकि इनके द्वारा किया गया कालखंड वर्गीकरण व्यवस्थित नहीं है, और अंग्रेजी भाषा में संकलित होने के कारण यह ग्रन्थ हिंदी साहित्य लेखकों के लिए विशेष प्रेरक नहीं बन सका फिर भी, तात्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों की जो महत्त्वपूर्ण जानकारी हमें इस ग्रन्थ से मिलती है वह स्तुत्य है |
ग्रियर्सन द्वारा लिखित ‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ (1889 ई.) इतिहास ग्रन्थ की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, इनके द्वारा किया गया साहित्येतिहास कालखंड वर्गीकरण, जिसे सर्वप्रथम साहित्येतिहास को कालखंड में वर्गीकृत करने का गौरव प्राप्त है |
ग्रियर्सन – ‘द मॉडर्न लिट्रेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान’ (1889 ई.) की विशेषताएँ निम्न हैं :-
- काल-विभाजन, लेखकों का कार्यक्रम से वर्गीकरण, कृतियों का कालखंडों में विभाजन
- प्रत्येक अध्याय के कालविशेष का विवरण, इसमें 952 कवियों को शामिल किया गया है |
- प्रत्येक अध्याय के अंत में गौण कवियों का उल्लेख तथा परिस्थितियों, प्रवृत्तियों तथा प्रेरक स्रोतों का उद्घाटन |
- उक्त विशेषताओं के कारण कई विद्वानों की दृष्टि में यह सच्चे अथवा वास्तविक अर्थ में हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास-ग्रंथ है |
- हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण एवं कालविभाजन का प्रथम श्रेय जॉर्ज ग्रियर्सन को है |
- ग्रियर्सन ने रीतिकाल की कविता को ‘द आर्स पोयटिका के अंतर्गत रखा तथा बिहारी की कविता को ‘अक्षर कामधेनु’ कहा |
मिश्रबन्धु विनोद :-
मिश्रबंधुओं (गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र व शुकदेव बिहारी मिश्र) की कृति ‘मिश्रबन्धु विनोद’ है | ‘मिश्रबन्धु विनोद’ की रचना चार भागों में की गई है | जिनमें से प्रथम तीन भाग 1913 ई. में व चौथा भाग 1934 ई. में प्रकाशित हुआ |
‘मिश्रबन्धु विनोद’ ग्रन्थ की रचना का आधार काशी ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की खोज रिपोर्ट थी, और इसमें कुल 4591 कवियों को स्थान मिला | इस साहित्येतिहास को कुल पाँच (5) कालखंडों में विभाजित किया गया और प्रत्येक युग के रचनाकारों के रचनात्मक योगदान का अनुशीलन किया है |
यद्यपि वे हिंदी साहित्य का विधिवत इतिहास लिखना चाहते थे किन्तु, अपनी चाहत में वे सफल न हो सके, फिर भी ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से ‘मिश्रबन्धु विनोद’ के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह परवर्ती इतिहासकारों के लिए आधार ग्रन्थ साबित हुआ |
‘मिश्रबन्धु विनोद’ आदर्श इतिहास, साहित्य के विविधांगों, साहित्य-लेखन की आलोचनानात्मक प्रणाली इत्यादि विभिन्न दृष्टियों से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि, कवियों का परिचयात्मक विवरण मैंने ‘मिश्रबन्धु विनोद‘ से लिया है | हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का व्यवस्थित और सम्यक आरम्भ ‘मिश्रबन्धु विनोद’ से होता है |
(‘मिश्रबन्धु विनोद’) –
चार भागों में प्रकाशित (प्रथम तीन भाग – 1913 ई., चौथा भाग – 1934 ई.) विशेषताएं निम्न हैं –
- कविवृत्त संग्रह मूलक इतिहास एवं इतिवृत्तात्मक इतिहास ग्रन्थ
- 4591 कवियों का विवरण, हिंदी साहित्येतिहास का 5 कालखंडों में विभाजन
- साहित्य के विविधाँगों का उल्लेख एवं साहित्यिक मूल्यांकन
- परंपरागत सिद्धांतों के आधार पर समीक्षा, इतिहास लेखन की आलोचनात्मक प्रणाली |
- शुक्ल जी द्वारा कवियों का परिचयात्मक विवरण ‘मिश्रबन्धु विनोद’ से लिया गया है |
हिन्दी साहित्य का इतिहास (1929 ई.)
हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में सर्वाधिक उल्लेखनीय नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल का रहा है | उन्होंने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुए सुव्यवस्थित इतिहास लिखकर इतिहास लेखन की परंपरा में एक नए युग और नई चेतना की शुरुआत की |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नामक ग्रन्थ पहले हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में ‘हिंदी साहित्य की रूपरेखा‘ नाम से 1927 ई. में लिखा गया था एवं ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ द्वारा 1929 ई. के जनवरी माह में परिमार्जित होकर ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नाम से एक पुस्तक के रूप में ‘प्रकाशित हुआ | बाद में इस ग्रन्थ का दूसरा संशोधित संस्करण 1940 ई. में निकला था |
शुक्ल जी का साहित्य इतिहास ग्रन्थ एक आधार ग्रन्थ है | शुक्ल जी ने इतिहास ग्रन्थ लिखने से पूर्व ‘साहित्य व साहित्येतिहास’ में अपनी धारणा स्पष्ट की थी| वे लिखते हैं कि –
[blockquote align=”none” author=”आचार्य रामचंद्र शुक्ल”]”प्रत्येक देश साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है | तब यह निश्चित है कि, जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है | आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है |”[/blockquote]
हिन्दी साहित्य का इतिहास (1929 ई.)
शुक्ल जी ने अपने इस कथन का पूरा निर्वाह अपने साहित्येतिहास में किया है | इन्होंने अपने हिंदी साहित्य इतिहास ग्रन्थ को जिस पद्धति में लिखा है उसे ‘विधेयवादी पद्धति’ कहते हैं | इसमें उन्होंने युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास की बात कही | शुक्ल जी ने 900 वर्षों के हिंदी साहित्य इतिहास को चार (4) भागों में बांटा जो आज भी मान्य है|
आदिकाल | वीरगाथा काल |
भक्तिकाल | उत्तर मध्य काल |
उत्तर मध्य काल | रीतिकाल |
आधुनिक काल | गद्यकाल |
शुक्ल जी का यह काल विभाजन अत्यंत लोकप्रिय हुआ | बाद के इतिहास लेखकों ने थोड़ा बहुत परिवर्तन कर इसी को आधार बनाकर अपने काल विभाजन एवं कालों का नामकरण प्रस्तुत किया | इन्होंने ही भक्तिकाल को निर्गुण व सगुण धाराओं में बांटकर पुनः उन्हें क्रमशः दो-दो उपभागों ज्ञानाश्रयी, प्रेमाश्रयी तथा रामभक्ति व कृष्णभक्ति शाखा में बाँटा | रीतिकाल के कवियों को भी उन्होंने रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त कवियों में स्थान दिया |
शृंखलाबद्ध इतिहास का प्रकटीकरण, वैज्ञानिक इतिहासबोध, राजनैतिक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य के विकास, प्रवृत्तियों और विशेषताओं का निरूपण, आलोचनात्मक इतिहास, इतिहास के साथ-साथ इतिहास दर्शन, मौलिकता, विद्वतापूर्ण चिंतन, वैज्ञानिक एवं व्यापक दृष्टिकोण इत्यादि विविध कारणों से शुक्ल जी का साहित्येतिहास ग्रन्थ आज भी वैज्ञानिक है | यह हिंदी साहित्य का प्रथम वैज्ञानिक, प्रामाणिक, आलोचनात्मक एवं सर्वोत्कृष्ट इतिहास ग्रन्थ है |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल – ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ ग्रन्थ की विशेषताएँ
(1927 ई. में लिखित और जनवरी, 1929 ई. में प्रकाशित) एवं संशोधित रूप का प्रकाशन 1940 ई. में |
स्वरूप – ‘हिन्दी शब्द सागर’ की भूमिका के रूप में आरम्भ में प्रकाशन ‘हिंदी साहित्य का विकास’ शीर्षक से एवं बाद में स्वतन्त्र कृति के रूप में प्रकाशन|
- विधेयवादी पद्धति में लिखा गया सर्वप्रथम व्यवस्थित इतिहास ग्रन्थ
- कवियों की संख्या, जीवनचरित की अपेक्षा उनके साहित्यिक रचनाओं के मूल्यांकन पर बल |
- ‘मिश्रबन्धु-विनोद’ में कवियों की संख्या 5000 थी, शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रन्थ में 1000 कवियों को स्थान दिया |
- आधुनिक समालोचनात्मक दृष्टिकोण एवं वैज्ञानिक इतिहास बोध – पद्धति |
- कालखंडों तथा काव्यधाराओं का सुनिश्चित वर्गीकरण |
- हिंदी-साहित्येतिहास का सबसे प्रामाणिक, वैज्ञानिक, सुव्यवस्थित, सर्वोत्कृष्ट, इतिहास ग्रन्थ, आलोचनात्मक इतिहास ग्रन्थ |
- युगीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों में हिंदी साहित्य के विकास का विवेचन |
हिंदी भाषा और साहित्य (1930 ई.)
हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास :-
डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘हिन्दी सहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ साहित्येतिहास ग्रन्थ लिखा, जो वर्ष 1938 ई. में प्रकाशित हुआ | इसमें उन्होंने (693 ई. से 1693 ई.) तक के कालखंड को विवेचित किया है |
वर्मा जी, शुक्ल जी के वीरगाथा काल को चारण काल कहना अधिक श्रेष्ठ मानते थे | इससे पहले के साहित्य को उन्होंने संधिकाल नाम दिया है|वर्मा जी ने अपने ग्रन्थ में अपभ्रंश की बहुत सारी सामाग्री को समाहित किया है | इसी के चलते वे स्वयंभू को हिंदी का पहला कवि मानते हैं |
डॉ. रामकुमार वर्मा के ग्रन्थ का दूसरा भाग प्रकाशित नहीं हुआ है | द्वितीय ग्रन्थ अधूरा है | द्वितीय भाग में भक्तिकाल के बाद के कालों की चर्चा न होने के कारण यह अप्रकाशित है |
डॉ. रामकुमार वर्मा – ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (1938 ई.) की विशेषताएं निम्न हैं –
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसरण पर साहित्येतिहास कालविभाजन एवं वर्गीकरण |
- ‘संधिकाल’ में अपभ्रंश के कवि को शामिल करना |
- अपभ्रंश के प्रथम कवि ‘स्वयंभू का हिन्दी का आदिकवि बताना और हिंदी साहित्य का आरंभ 693 ई. से मानना |
- निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा को संतकाव्य, प्रेममार्गी शाखा को प्रेमकाव्य एवं वीरगाथाकाल को चारणकाल और संधिकाल की संज्ञा देना |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास ग्रन्थ :-
शुक्ल जी के बाद हिन्दी जगत् में हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्त्वपूर्ण स्थान है | द्विवेदी जी ने साहित्येतिहास से सम्बंधित तीन पुस्तकें लिखी है |
१. हिन्दी साहित्य की भूमिका (1940 ई.)
२. हिन्दी साहित्य का उद्भव एवं विकास (1952 ई.)
३. हिन्दी साहित्य का आदिकाल (1952 ई.)
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वह प्रथम इतिहासकार हैं, जिन्होंने रामचंद्र शुक्ल की अनेक मान्यताओं, धारणाओं का पुख्ता प्रमाणों के आधार पर खंडन किया और अपनी मान्यताएं स्थापित कीं | शुक्ल जी के वीरगाथा काल को द्विवेदी जी आदिकाल कहना उचित समझते हैं | शुक्ल जी ने जिन ग्रंथों के आधार आदिकाल को पर वीरगाथा काल नाम दिया है | द्विवेदी जी उन ग्रंथों को प्रामाणिक नहीं मानते |
शुक्ल जी द्वारा भक्ति आंदोलन के उदय की व्याख्या का भी द्विवेदी जी खंडन करते हैं | द्विवेदी जी की मान्यता है कि, भक्तिकाल (हिन्दी संतकाव्य) पूर्ववर्ती नाथ, सिद्ध साहित्य का सहज विकसित रूप है | द्विवेदी जी हिन्दी सूफी काव्य को संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश की काव्य प्रतिभा को द्विवेदी जी ने उजागर करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की मान्यताएँ :-
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य को इस्लाम प्रवेश की प्रतिक्रया या हारी हुई जाति की कुंठा के रूप में न देखकर उसे पूर्ववर्ती परंपरा के सहज विकास के रूप में देखा | ‘अपभ्रंश’ एवं ‘लोकभाषा’ का साहित्य हिंदू राज्यकाल में सर्वथा उपेक्षित था – इस सम्बन्ध में द्विवेदी जी ने यह तस्वीर साफ की कि, मुसलमानों के आगमन के पूर्व भी हिंदू राजाओं के दरबार में उन्हें गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था |
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने आदिकाल की उन कृतियों (जैन, सिद्धों एवं नाथों) को, जिन्हें शुक्ल जी ने साम्प्रदायिक काव्य कहकर उपेक्षा की थी उसके प्रति संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए उनकी साहित्यिकता का समर्थन किया | इस प्रकार दृष्टिकोण की नवीनता, प्रचलित भ्रांतियों का निराकरण, प्राचीन काव्य का नवीन मूल्यांकन, प्राचीन काव्य की नवीन ऐतिहासिक चिंतन इत्यादि विविध दृष्टियों से हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी-साहित्येतिहास के अत्यंत सशक्त एवं महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं |
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास ग्रन्थ की विशेषताएं :-
- भारतीय शास्त्रीय तथा लोक परम्पराओं के व्यापक सन्दर्भ में मूल्यांकन |
- मानवता की दृष्टि से पुनराख्यान |
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास का पूरक |
- शुक्ल जी की अनेक धारणाओं स्थापनाओं का खंडन (जैसे – भक्ति आंदोलन न तो तद्युगीन पराजित हिन्दू जाति की निराशा से उद्वेलित है न यह इस्लाम की प्रतिक्रिया है | हिंदी का संतकाव्य सिद्धों, नाथों के साहित्य का विकसित रूप है, उसे इस्लाम पर मानने की आवश्यकता नहीं |
‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ :-
डॉ. गणपति चंद्र गुप्त ने भी हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है | गुप्त जी ने ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ (1965 ई.) दो खण्डों में लिखा है |
गुप्त जी ने शुक्ल जी के काल विभाजन को स्वीकार न करते हुए हिंदी साहित्य के इतिहास को तीन खण्डों में विभाजित किया – प्रारम्भिक काल, मध्य काल व आधुनिक काल |
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत ‘गार्सां द तासी’ से हुई, जो अब तक चली आ रही है | विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से इतिहास ग्रंथों की रचना कर अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है |
अन्य हिंदी साहित्य इतिहास ग्रन्थ :-
उपर्युक्त महत्ववपूर्ण हिंदी साहित्येतिहास ग्रंथों के अतिरिक्त अनेक इतिहास ग्रंथों का प्रयत्न हुआ, इनमें इतिहास लेखन की दृष्टि से डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी का ‘हिंदी-साहित्य का इतिहास, नलिन विलोचन शर्मा कृत ‘साहित्य इतिहास का दर्शन’, डॉ. नगेन्द्र के सम्पादन में ‘हिंदी सहित्य का इतिहास’ बाबू गुलाबराय कृत ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ , डॉ. वासुदेव सिंह कृत ‘हिंदी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास’ इत्यादि ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं चर्चित हैं |
इन हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थ के अलावा भी बहुत से ग्रन्थ अब तक लिखे जा चुके हैं, जिनके बारे में हम विस्तार से अगली पोस्ट में पढ़ेंगे |
हिंदी साहित्य का इतिहास वस्तुनिष्ठ प्रश्न (महत्त्वपूर्ण तथ्य)
- हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने का सर्वप्रथम प्रयास – गार्सां द तासी (फ्रेंच विद्वान्) (1839 ई.)
- किसी भारतीय विद्वान् द्वारा हिंदी साहित्य इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास – ठाकुर शिव सिंह सेंगर (1883 ई.)
- काल विभाजन करने वाला हिन्दी साहित्य का सर्वप्रथम इतिहासकार – जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1888 ई.)
- परम्परागत रूप में हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहासकर्त्ता – मिश्रबन्धु (1913 ई.)
- सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य के प्रथम व्यवस्थित इतिहासकार – आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1929 ई.)
- हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रथम लेखक कौन है – गार्सां द तासी (फ्रेंच विद्वान्) (1839 ई.)
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2 comments
बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है धन्यवाद 🙏
Bahut achha laga humko .