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भ्रमरगीत परम्परा
भ्रमरगीत : काव्य परम्परा – हिंदी काव्य में ‘भ्रमरगीत’ का मूल आधार ‘श्री मद्भागवत्’ है। ‘श्री मद्भागवत्’ के दशम स्कंध के पूर्वार्द्ध में अध्याय 46 तथा 47 में ‘भ्रमरगीत-परम्परा’ के प्रसंग का वर्णन आता है ।
हिंदी-साहित्य (काव्य) में ‘भ्रमरगीत’ का प्रारम्भ कई विद्वान् विद्यापति जी के पदों से मानते हैं, लेकिन विधिवत् रूप से ‘भ्रमरगीत काव्य-परम्परा’ सूरदास जी से ही आरम्भ हुई । सूरदास जी ने तीन (3) भ्रमरगीतों की रचना की, जिनमें प्रथम भ्रमरगीत (पद सँख्या 4078 से 4710) ही मुख्य है । शेष दो (2) कथात्मक हैं । (क) पद सँख्या 4711 – 4712 तथा (ख) 4713 कथात्मक हैं ।
भ्रमरगीत क्या है ?
‘भ्रमरगीत’ हिंदी साहित्य की एक विशेष काव्य-परम्परा है, जिसमें निर्गुण का खंडन कर सगुण का मंडन करना एवं ज्ञान/योग की तुलना में भक्ति/प्रेम को श्रेष्ठ ठहराना निहित है ।
श्रीकृष्ण गोपियों से विदा लेकर जब मथुरा निकल जाते हैं तो गोपियाँ उनके विरह में विकल हो उठतीं हैं, चूंकि श्रीकृष्ण लोककल्याणकारी कार्यों में व्यस्त हैं इसलिए वे स्वयं नहीं जा पाते और उद्धव जो बहुत ज्ञानी हैं तथा उनके मित्र भी हैं, इन्हें श्रीकृष्ण गोपियों के पास गोकुल भेज देते हैं ताकि वे उन्हें समझा सकें । उद्धव और गोपियों का वार्तालाप जैसे ही प्रारम्भ हुआ उनके बीच एक भँवर (भ्रमर) आ जाता है, इसी भ्रमर को प्रतीक मानकर गोपियों ने अन्योक्ति के माध्यम से जो व्यंग्य / उपालम्भ कहे हैं हिंदी साहित्य में उसे ही ‘भ्रमरगीत’ कहा गया है ।
भ्रमरगीत परंपरा के प्रवर्तक –
भ्रमरगीत-परम्परा के प्रवर्त्तक सूरदास जी हैं और ‘भ्रमरगीत’ के प्रसंग में सूर का ‘सूरसागर’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है | इनके विषय में आचार्य शुक्ल ने कहा है कि,
”सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है।”
- इनके उपरान्त भ्रमरगीत की दीर्घ परम्परा चल पड़ी, जिन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है –
भक्तिकाल में भ्रमरगीत काव्य परम्परा –
हिंदी साहित्य में ‘भक्तिकाल’ को स्वर्ण युग माना गया है, संभव है कि वे लेखन भाषा की सौम्यता, ईश की वंदना एवं भारतीय जन-मानस को विदेशी आक्रांताओं से लड़ने हेतु सशक्त प्रेरणा देता है। यद्यपि ये सारे गुण तो आधुनिक काल के द्विवेदी युग में भी थे, तो फिर उसे स्वर्णयुग क्यों नहीं कहा जा सकता ?
वास्तव में, भक्तिकाल में इन उक्त विशेषताओं के अलावा भी एक विशिष्ट गुण था। जिसके कारण हिंदी साहित्य में एक बड़ा बदलाव हुआ और काव्य लेखन में ‘परम्परा’ की शुरुआत हुई। ये राम काव्य और कृष्ण काव्य परंपरा के रूप में शुरू हुई, किन्तु एक और काव्य परम्परा प्रारम्भ हुई; जिसका नाम था – ‘भ्रमरगीत’ काव्य परम्परा।
भ्रमरगीत का संक्षिप्त परिचय
संस्कृत में महर्षि वेदव्यास कृत ‘श्रीमद्भागवत’ के दशम स्कंध में इसकी कथा का उल्लेख है। इसकी मूल कथा है कि जब कृष्ण गोकुल से मथुरा आए हैं, तो उनके प्रेम बंधन में समस्त गोपिकाएं व्याकुल हैं एवं वे निरन्तर कृष्ण का स्मरण करती हैं। अंतर्यामी कृष्ण ये समझते हैं लेकिन ज्ञानी उद्धव इस बात को नहीं समझते, इसलिए वह योग और ज्ञान के प्रकाण्ड ज्ञानी उद्धव को अपना सन्देश देकर वहाँ भेजते हैं। जब उद्धव गोपियों को कृष्ण का संदेश सुनाते हैं, तभी एक भ्रमर (भँवरा) आ बैठता है। जिसको उपमान मानकर गोपिकाएं उपमेय उद्धव पर व्यंग्य करती हैं और उन्हें भक्ति का पाठ पढ़ाती हैं। जिससे ज्ञानयोगी उद्धव भी भक्तिमय हो जाते हैं।
हिंदी साहित्य में भ्रमरगीत
ये सर्वविदित है कि भागवत् के हिंदी अनुवाद ‘सूर सागर’ में इस बात का वर्णन है, जहाँ स्वामी सूरदास ने इसमें अपने भक्ति मनोभावों का भी उत्कृष्ट परिचय दिया है। सूर से पहले किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया और इसे अपने काव्य में नहीं उतारा ।
आखिर कैसे कोई इस विषय पर सोचता? अगर उस समय के रासोकारों को अपने राजा की चरण-वंदना करने से समय मिलता, तो शायद वह इसके बारे में सोचने का प्रयास भी करते। इसमें कोई संदेह नहीं कि, ऐसे मनोभावों के दृश्य को वही देख सकता है, जो भौतिक दृष्टि से नहीं बल्कि अंतरात्मा के प्रज्ञाचक्षु से एकटक इस दृश्य को देख सके। यही कारण है कि अर्जुन और संजय भी कृष्ण के रूप का दर्शन दिव्य नेत्रों से ही कर पाए थे। ये दिव्यता सूरदास में जन्मजात थी इसलिए डॉ. जगदीश गुप्त ने ‘छंद शती’ में सूरदास के विषय में ये ठीक लिखा है-
“चाहन को घनश्याम की माधुरी, चाहिए सूर की आंधरी आँखें।।”
सूरदास से जो ‘भ्रमरगीत परम्परा’ प्रारम्भ हुई, वे उस कालखंड से इस समय तक अनवरत रूप से चल रही है। यद्यपि कवियों ने उसे भिन्न-भिन्न शीर्षक और विभिन्न छंदों में वर्णित किया है, किन्तु सभी का भाव एक ही है। भक्तिकाल में भ्रमरगीत ‘सूरदास’ के अलावा अष्टछाप के अन्य कवि नंददास, परमानंददास, कृष्णदास और गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा।
परमानन्द दास जी ने ‘भ्रमरगीत’ के लिए ‘मधुकर’ शब्द का प्रयोग किया है । नंददास का ‘भ्रमरगीत’ मौलिकता, तर्क-वितर्क, भाव व्यंजना, दार्शनिकता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । ‘भ्रमरगीत’ छंद का प्रयोग नंददास के भ्रमरगीत में ही उपलब्ध होता है | तुलसी की ‘कवितावली’ और ‘श्रीकृष्णगीतावली’ में भी भ्रमरगीत का प्रसंग मिलता है ।
रीतिकाल में भ्रमरगीत –
रीतिकाल में देव, घनानंद, सेनापति, पद्माकर मतिराम, चाचा वृन्दावनदास, घनानंद, भिखारीदास, आदि कवियों ने अपनी फुटकल रचना के रुप में ‘भ्रमरगीत परम्परा’ को जीवित रखा, लेकिन रीतिकाल में इस प्रसंग को लेकर प्रायः फुटकर छंद ही लिखे गए ।
आधुनिक काल में भ्रमरगीत परंपरा –
आधुनिक काल में ‘भ्रमरगीत’ परम्परा को अधिकाधिक विस्तार मिला और कई कवियों ने इस विषय पर अपनी कलम चलाई। इन कवियों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (प्रिय प्रवास), जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ (उद्धव शतक), सत्यनारायण ‘कविरत्न’ (भ्रमरदूत) डॉ० रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ द्वारिका प्रसाद मिश्र एवं श्यामसुन्दर दास दीक्षित इत्यादि के ‘भ्रमरगीत’ मिलते हैं ।
इनके अतिरिक्त और भी कई कवियों ने इस प्रसंग को लेकर फुटकल छंद में रचनाएँ की हैं और आज भी ब्रजभाषा के कई कवि द्वारा इस प्रसंग पर नवलेखन किया जा रहा है, जो सराहनीय है।
मैथिली शरण गुप्त जी ने ‘द्वापर’ में भ्रमरगीत प्रसंग का निरूपण किया है, हरिऔध जी के ‘प्रियप्रवास’ में भ्रमरगीत-प्रसंग का वर्णन विस्तार पूर्वक हुआ है ।
भ्रमरगीत परंपरा
आधुनिक काल में सत्यनारायण कविरत्न जी ने जो ‘भ्रमरदूत’ नामक काव्य रचना की है वह इस परम्परा का काव्य नहीं माना जाता है | क्योंकि इसमें उद्धव-गोपी संवाद तथा ज्ञान-भक्ति के विवेचन का अभाव है | जगन्नाथ दास रत्नाकर द्वारा विरचित ‘उद्धव-शतक’ में ‘भ्रमरगीत’ शब्द का अभाव है, पूरे ग्रन्थ में केवल एक बार ‘मधुप’ शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु इसका वर्ण्य-विषय उद्धव-गोपी संवाद एवं उद्देश्य ज्ञान के ऊपर भक्ति का विजय होने के कारण यह ‘भ्रमरगीत-परम्परा’ का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है ।
अतः सारांश यह है कि भ्रमरगीत परंपरा केवल कोई काव्य विशिष्टता का ही उदाहरण नहीं है, अपितु एक भक्त के भगवान के प्रति मनोभावों का यथार्थ उदाहरण भी है।
“उधौ मन ना भए दस बीस।
एक हुतौ सौ गयौ स्याम संग, को आराधे ईस।।
इंदरी सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागि रहित तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस॥”
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(माधव शर्मा)