Home भक्ति काल कबीर के दोहे अर्थ सहित – Kabir 50 Famous Dohe with Hindi Meaning

कबीर के दोहे अर्थ सहित – Kabir 50 Famous Dohe with Hindi Meaning

by हिन्दी ज्ञान सागर
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कबीर के दोहे | kabeer ke dohe in hindi

अनुक्रमणिका

कबीर के दोहे

जिनसे जीवन में बहुत कुछ सीखने को मिलता है

Kabir ke Dohe with Hindi Meaning


कबीर के दोहे पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं, क्योंकि उनके दोहों में जीवन जीने की प्रेरणा है, वास्तविक ज्ञान है, जो सत्य से हमारा परिचय कराता है । जीवन से जो अनुभव/सीख कबीरदास जी को मिले उसे उन्होंने अपने दोहों में समेट लिया, जिसे हम कबीर की साखियाँ कहते हैं । साखी का अर्थ है साक्षी अर्थात् जिसने अपनी आँखों से देखा हो ।

 

कबीर अपने जीवन के अनुभव के बारे में कहते हैं – मैं कहता आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।  कबीर ने जो प्रत्यक्ष अनुभव किया उसे अपने दोहों में उकेरा, इसे सिर्फ कागज़ पर लिखे लेख न समझा जाए । कबीर ने स्वयं दोहे नहीं लिखे, उनके शिष्य धर्मदास द्वारा उन्हें संकलित एवं संपादित कराया गया था। कबीर के दोहों ने जीवन को एक नयी दृष्टि दी,  प्रत्यक्ष ज्ञान जो उनकी दृष्टि में सच्चा ज्ञान है, उससे हमें परिचित करवाया है  जिसकी अनुभूति हमें उनके दोहों में होती है ।


कबीर के दोहे अर्थ सहित

कबीर के दोहे और अर्थ


कबीर की वाणी में प्रखरता है, वे जो बोलते हैं दो टूक  बोलते हैं, बेबाकीपन (निर्भीकता) उनका स्वभाव है । बाह्याडम्बर पर उन्होंने पुरजोर प्रहार किया, और जो यथार्थ था उसका समर्थन किया, क्योंकि कबीर एकेश्वरवाद के समर्थक थे । उनका मानना था ईश्वर प्रत्येक प्राणी के मन में समान रूप से बसे हुए हैं, उसी निर्गुण ब्रह्म/ईश्वर की हमें आराधना करनी चाहिए ।

कबिरा की अमरित बानी – कबीर के दोहे

“चलन चलन सब लोक कहत हैं,

       न जानों बैकुंठ कहाँ हैं?”

 

भारतीय दर्शन और साहित्य में कबीर ने ईश्वर के र्निगुण/निराकार रूप को अपने ज्ञान/दोहों के माध्यम से बताने का कार्य किया, यही कारण है कि, हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग अर्थात् भक्तिकाल के ये प्रथम और सशक्त स्तम्भ माने गए हैं। इसका कारण यह है कि, जनमानस ने उनकी बात को सुना, समझा और उसे साकार करने का प्रयास भी किया।
       यद्यपि, एक ओर कबीर ने ईश्वर प्राप्ति के धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया, तो दूसरी ओर उसके आध्यात्मिक मार्गो का विश्लेषण भी किया। उन्होंने अपना सम्पूर्ण दृष्टिकोण अपने साहित्य के रूप में संसार के सामने रखा, जो आज भी ‘कबीर ग्रन्थावली’ के रूप में उपलब्ध है। जिसमें उनके द्वारा रचित साखी (साक्षी), सबद (शब्द) और रमैनी (रामायणी) का सम्पूर्ण संकलन है।

      आद्यगुरु शंकराचार्य की भांति ही कबीर की विचारधारा भी अद्वैतवाद अथवा एकेश्वरवाद की थी। किन्तु, उनके वास्तविक गुरु विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजाचार्य के शिष्य सन्त रामानन्द थे। रामावत संप्रदाय के प्रवर्तक गुरु रामानन्द ने ही कबीर को ‘राम’ नाम का वास्तविक अर्थ बताया। कबीर को राम नाम रामानन्द से ही प्राप्त हुआ, पर उनके राम आगे चलकर रामानन्द के राम से भिन्न हो गए। कबीर ने दूर-दूर तक देशाटन किया। साथ ही हठयोगियों तथा सूफी फकीरों का भी सत्संग किया। अतः उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ़ हो गई, जिसे कबीर ने अपनी ‘पंचमेल खिचड़ी’ की भाषा में  इस प्रकार प्रस्तुत किया :-


कबीर दास के दोहे अर्थ सहित 

Kabir Ke Dohe in Hindi With Meaning

 कबीर के दोहे – सँख्या १

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कह गए दास कबीर।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।


कबीर के दोहे – सँख्या २


गुरु गोविंद करी जानिए, रहिए शब्द समाय।

मिलै तो दण्डवत बन्दगी, नहीं पलपल ध्यान लगाय।।

अर्थ :- ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं – हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने। गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन कारे और उसी क्षेत्र मे रहें। जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा न हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करने का सुगम (सुविधाजनक) मार्ग बताया।


कबीर के दोहे – सँख्या ३ 

 

माया दोय प्रकार की, जो कोय जानै खाय।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीर जी कहते हैं कि, माया के दो स्वरुप है। यदि कोई इसका सदुपयोग देव सम्पदा के रूप में करे तो जीवन कल्याणकारी बनता है, किन्तु माया के दूसरे  स्वरुप अर्थात आसुरि प्रवृति का अवलम्बन करने पर जीवन का अहित होता और प्राणी नरक गामी होता है।


कबीर के दोहे | सँख्या ४

 

कबीर कमाई आपनी, कबहुं न निष्फल जाय।
सात समुद्र आड़ा पड़े, मिलै अगाड़ी आय।।

अर्थ :- कबीर साहेब कहते हैं कि, कर्म की कमाई कभी निष्फल नहीं होती चाहे उसके सम्मुख सात समुद्र ही क्यों न आ जाए अर्थात् कर्म के वश में होकर जीव सुख एवम् दुःख भोगता है अतः सत्कर्म करें।


कबीर के दोहे | सँख्या ५

 

कामी का गुरु कामिनी, लोभी का गुरु दाम।
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम।।

अर्थ :- कुमार्ग एवम् सुमार्ग के विषय में ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हुए महासंत कबीर दास जी कहते हैं कि, कामी व्यक्ति कुमार्गी होता है वह सदैव विषय वासना की सम्पत्ति बटोरने में ही ध्यान लगाए रहता है। जिनका गुरु, मित्र, भाई–बन्धु ही सब कुछ (धन) होता है और जो इन विषयों से दूर रहता है उसे संतों की कृपा प्राप्त होती है अर्थात् वह स्वयं सन्तमय होता है और ऐसे प्राणियों के अन्तर में अविनाशी भगवान का निवास होता है । दूसरे अर्थो में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं।


कबीर के दोहे | सँख्या ६

 

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।

अर्थ :- कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।


कबीर के दोहे | सँख्या ७

 

ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।।

अर्थ :- कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न  मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।


कबीर के दोहे | सँख्या ८

 

गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागुं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।

अर्थ :- गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करणा चाहिये – गुरु को अथवा गोविंद को। ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों मे शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविंद का दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ।


कबीर के दोहे | सँख्या ९ 

 

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाहि जब छूट॥

अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि, अभी राम नाम की लूट मची है, अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात् मर जाने के बाद पछताओगे कि, मैंने तब राम भगवान् की पूजा क्यों नहीं की।


कबीर के दोहे | सँख्या १०

 

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय॥

अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि, दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों!


कबीर के दोहे | सँख्या ११

 

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।

अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि, जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो। जीवन बहुत छोटा होता है अगर पल भर में समाप्त हो गया तो क्या करोगे।


कबीर के दोहे | सँख्या १२

 

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थ :- बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान् न हो सके। कबीर मानते हैं कि, यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात् प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।


कबीर के दोहे | सँख्या १३

 

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।

अर्थ :- इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।


कबीर के दोहे | सँख्या १४

 

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

अर्थ :- कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि, हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।


कबीर के दोहे | सँख्या १५

 

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।

अर्थ :- सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले आवरण का।


कबीर के दोहे | सँख्या १६

 

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।

अर्थ :- यह मनुष्य का स्वभाव है कि, जब वह  दूसरों के दोष देख कर हँसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।


कबीर के दोहे | सँख्या १७

 

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

अर्थ :- जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।


कबीर के दोहे | सँख्या १८

 

सुमिरन मारग सहज का, सतगुरु दिया बताय।
सांस सांस सुमिरण करूं, इक दिन मिलसी आय।।

अर्थ :- सुमिरन करने का बहुत ही सरल मार्ग सद्गुरू ने बता दिया है। उसी मार्ग पर चलते हुए मैं साँस-साँस में परमात्मा का सुमिरन करता हूँ जिससे मुझे एक दिन उनके दर्शन निश्चित ही प्राप्त होगें। अर्थात् सुमिरन प्रतिदिन की साधना हैं जो भक्त को उसके लक्ष्य की प्राप्ति कराती है।


कबीर के दोहे | सँख्या १९

 

बालपन भोले गया, और जुवा महमंत।
वृध्दपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त।।

अर्थ :- बाल्यकाल भोलेपन में व्यतीत हो गया अर्थात् अनजान अवस्था में बीत गया युवावस्था आयी तो विषय वासनाओं में गुजार दिया तथा वृद्धावस्था आई तो आलस में बीत गयी और अन्त समय में मृत्यु हो गयी और शरीर चिता पर जलने के लिए तैयार है।


कबीर के दोहे | सँख्या २०

 

सब वन तो चन्दन नहीं, शुरा के दल नाहिं।
सब समुद्र मोती नहीं, यों साधू जग माहिं।।

अर्थ :- सारा वन चन्दन नहीं होता, सभी दल शूरवीरों के नहीं होते, सारा समुद्र मोतियों से नहीं भरा होता इसी प्रकार संसार में ज्ञानवान विवेकी और सिद्ध पुरुष बहुत कम होते है।


कबीर के दोहे | सँख्या २१

 

दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप।
जहा क्षमा वहां धर्म है, जहा दया वहा आप।।

अर्थ :- परमज्ञानी कबीर दास जी अपनी वाणी से मानव जीवन को ज्ञान का उपदेश करते हुए कहते हैं कि, दया, धर्म की जड़ है और पाप युक्त जड़ दूसरों को दु:खी करने वाली हिंसा के समान है। जहा क्षमा है वहा धर्म का वास होता है तथा जहाँ दया है उस स्थान पर स्वयं परमात्मा का निवास होता है अतः प्रत्येक प्राणी को दया धर्म का पालन करना चाहिए।


कबीर के दोहे | सँख्या २२

 

माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार।
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार।।

अर्थ :- माली को आता हुआ देखकर कलियाँ पुकारने लगी, जो फूल खिल चुके थे उन्हें माली ने चुन लिया और जो खिलने वाली है उनकी कल बारी है। फूलों की तरह काल रूपी माली उन्हें ग्रस लेता है जो खिल चुके है अर्थात् जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है, कली के रूप में हम है हमारी बारी कल की है तात्पर्य यह कि एक-एक करके सभी को काल का ग्रास बनना है।


कबीर के दोहे | सँख्या २३

 

झूठा सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद।
जगत – चबेना काल का , कछु मूठी कछु गोद।।

अर्थ :- उपरी आवरण को, भौतिक सुख को सांसारिक लोग सुख मानते है और प्रसन्न होते हैं किन्तु यह सम्पूर्ण संसार काल का चबेना है। यहां कुछ काल की गेंद में है और कुछ उसकी मुटठी में है। वह नित्य प्रतिदिन सबको क्रमानुसार चबाता जा रहा है।


कबीर के दोहे | सँख्या २४

 

दीपक सुन्दर देखि करि, जरि जरि मरे पतंग।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मारै अंग।।

अर्थ :- प्रज्जवलित दीपक की सुन्दर लौ को देख कर कीट पतंग मोह पाश में बंधकर उसके ऊपर मंडराते है ओर जल जलकर मरते है। ठीक इस प्रकार विषय वासना के मोह में बंधकर कामी पुरुष अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक कर दारुण दुःख भोगते हैं।


कबीर के दोहे | सँख्या २५

 

           कबीर माया मोहिनी, सब जग छाला छानि।

            कोई एक साधू ऊबरा, तोड़ी कुल की कानि।।

अर्थ :- सन्त कबीर जी कहते हैं कि, यह जग माया मोहिनी है जो लोभ रूपी कोल्हू में पीसती है। इससे बचना अत्यंत दुश्कर है। कोई विरला ज्ञानी सन्त ही बच पाता है जिसने अपने अभिमान को तोड़ दिया है।


कबीर के दोहे | सँख्या २६

 

कबीर गुरु के देश में, बसि जानै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति वरन कुल खोय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि जो सद्गुरु के देश में रहता है अर्थात सदैव सद्गुरु की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करता है। उनके ज्ञान एवम् आदेशों का पालन करता है वह कौआ से हंस बन जाता है। अर्थात् अज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। समस्त दुर्गुणों से मुक्त होकर जग में यश सम्मान प्राप्त करता है।


कबीर के दोहे | सँख्या २७

 

कबीर या संसार की, झूठी माया मोह।
जिहि घर जिता बधावना, तिहि घर तेता दोह।।

अर्थ :- संसार के लोगों का यह माया मोह सर्वथा मिथ्या है। वैभव रूपी माया जिस घर में जितनी अधिक है वहाँ उतनी ही विपत्ति है अर्थात् भौतिक सुखसम्पदा से परिपूर्ण जीव घरेलू कलह और बैर भाव से सदा अशान्त रहता है, दु:खी रहता है।


कबीर के दोहे | सँख्या २८

 

कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास।
मन मनसा मा जै नहीं, होन चहत है दास।।

अर्थ :- गुरु की भक्ति करने का मन में बहुत उत्साह है किन्तु ह्रदय को तूने शुद्ध नहीं किया। मन में मोह , लोभ, विषय वासना रूपी गन्दगी भरी पड़ी है उसे साफ़ और स्वच्छ करने का प्रयास ही नहीं किया और भक्ति रूपी दास होना चाहता है अर्थात् सर्वप्रथम मन में छुपी बुराइयों को निकालकर मन को पूर्णरूप से शुद्ध करो तभी भक्ति कर पाना सम्भव है।


कबीर के दोहे | सँख्या २९

 

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूंगी तोय।

अर्थ :- मिट्टी, कुम्हार से कहती है, कि आज तू मुझे पैरों तले रोंद (कुचल) रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं तुझे पैरों तले रोंद दूँगी।


कबीर के दोहे | सँख्या ३०

 

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत।।

अर्थ :- गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जानते हैं। पारस मणि जग विख्यात है कि, उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि, अपने गुण-ज्ञान में ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।


कबीर के दोहे | सँख्या ३१

 

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।


कबीर के दोहे | सँख्या ३२

 

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि, परमात्मा तुम मुझे इतना देना कि, जिसमें बस मेरा गुजारा चल जाए, मैं अपना व अपने परिवार का पेट पाल सकूँ और किसी आने वाले अतिथि/साधु-सज्जन को भी भोजन करा सकूँ, वह मेरे घर से भूखा न लौटे।


कबीर के दोहे | सँख्या ३३

 

ऊँचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊँच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दा सोय ॥

अर्थ:- कबीर जी कहते हैं यदि कर्म उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ है ? सोने का कलश भी यदि सुरा से भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे ।


कबीर के दोहे | सँख्या ३४

 

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

अर्थ :- जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियाँ बता कर हमारे स्वभाव को स्वच्छ करता है।


कबीर के दोहे | सँख्या ३५

 

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।

अर्थ :- इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि, सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो!


कबीर के दोहे | सँख्या ३६

 

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।

अर्थ :- जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि, मुझसे बुरा कोई नहीं है।


कबीर के दोहे | सँख्या ३७

 

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।

अर्थ :- शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।


कबीर के दोहे | सँख्या ३८

 

आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।

एक सिंहासन चढ़ी चले, एक बँधे जात जंजीर ।

अर्थ :- जो भी व्यक्ति इस संसार में आता है चाहे वह अमीर हो या फिर गरीब हो वह आखिरकार, इस दुनिया से चला जाता है। एक व्यक्ति को धन-दौलत मिलती है जबकि दूसरा जात-पात की जंजीरों में जकड़ा रहता है।


कबीर के दोहे | सँख्या ३९

 

  अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

अर्थ :- न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।


कबीर के दोहे | सँख्या ४०

 

      शब्द सहारे बोलिय, शब्द के हाथ न पाव।

एक शब्द औषधि करे, एक शब्द करे घाव।।

अर्थ :- मुख से जो भी बोलो, सम्भाल कर बोलो कहने का तात्पर्य यह कि जब भी बोलो सोच समझकर बोलो क्योंकि शब्द के हाथ पैर नहीं होते किन्तु इस शब्द के अनेक रूप हैं। यही शब्द कहीं औषधि का कार्य करता है तो कहीं घाव पहुँचाता है अर्थात् कटु शब्द दुःख देता है।


कबीर के दोहे | सँख्या ४१

 

अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार।
मेरा चोर मुझको मिलै सरबस डारु वार।।

अर्थ :- संसार के लोग अपने अपने चोर को मार डालते हैं परन्तु मेरा जो मन रूपी चंचल चोर है यदि वह मुझे मिल जाये तो मैं उसे नहीं मारूँगा बल्कि उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दूँगा अर्थात मित्र भाव से प्रेम रूपी अमृत पिलाकर अपने पास रखूँगा।


कबीर के दोहे | सँख्या ४२

 

   बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।

पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥

अर्थ:  खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ होते हैं। 


कबीर के दोहे | सँख्या ४३

 

लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।

कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥

अर्थ: घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं. हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन  है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी गँवाते रहते हैं।


कबीर के दोहे | सँख्या ४४

कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार ।

हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार !॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि, जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं  जिनके सर पर ( विषय वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं – संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं।


कबीर के दोहे | सँख्या ४५

 

जल में कुम्भ कुम्भ  में जल है बाहर भीतर पानी ।

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥

अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है. जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं !  आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है –  जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है. एकाकार हो जाती है.


कबीर के दोहे | सँख्या ४६

तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।

मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥

अर्थ: तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य  कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है. किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ. कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी. मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे।


कबीर के दोहे | सँख्या ४७

 

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

अर्थ: सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से साँप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।


कबीर के दोहे | सँख्या ४८

 

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि, उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।


कबीर के दोहे | सँख्या ४९

 

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥

अर्थ:- कबीरदास जी  कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पड़ा है – जिससे मेरी अंतरात्मा तक भीग गई, आस-पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया, खुशहाल हो गया, यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है ! हम सब इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते !


कबीर के दोहे | सँख्या ५०

 

पाहन पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहार।
याते यह चाकी भली, पीस खाये संसार।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि अगर पत्थर पूजने से परमात्मा की प्राप्ति होती तो मैं पहाड़ की पूजा करूँ। इससे अच्छी तो यह चक्की है जिसका पीसा हुआ आटा समस्त संसार खाता है।


कबीर – साहित्य सहस्रधारा के समान है, जिसे अपनी अँजुरी में भर पाना असंभव है। इसे जितनी बार असावधानी से भरने का प्रयास करेंगे, उतनी बार ये झलखकर अँजुरी से बाहर गिर जाएगा। अतएव, उसे प्राप्त करना भले ही संभव हो सके, किन्तु वह सहज है। अपने सम्पूर्ण जीवन को एक ज्ञान-दर्शन भांति व्यतीत करने वाले सच्चे परमार्थी दास कबीर संसार के प्रत्येक जीव के लिए सदैव पूजनीय रहेंगे एवं उनके दोहे जीवन के पथप्रदर्शक के रूप में अनुकरणीय रहेंगे ।

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“का काशी का मगहर असर,
हृदय राम बस मोरा।
जो काशी तन तजइ कबीरा,
रामहिं कौन निहोरा।।”

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…………….इति…….………..

कबीर के दोहे अर्थ सहित PDF

– माधव शर्मा / हिन्दी ज्ञान सागर

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