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(हिंदी कथा सम्राट प्रेमचंद की जन्मजयंती पर एक विशेष आलेख)
‘मुंशी’ नहीं थे प्रेमचंद
जब भी हिंदी कथा साहित्य और किस्से-कहानियों की चर्चा होती है तो एक नाम अनायास ही हमारी जिह्वा पर आता है, वह नाम हैं : हिंदी कथा-सम्राट ‘प्रेमचन्द’ का। नि:संदेह, सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में प्रेमचन्द ही इकलौते ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी विषय-वस्तु और स्वीकार्यता का क्षेत्र राजभवन से लेकर गाँव की पगडंडी तक है। यही कारण है कि प्रेमचन्द केवल अपने युग के प्रवर्तक ही नहीं हैं बल्कि इसके पहले और बाद के युग भी इनके नाम से ही जाने जाते हैं।
क्या प्रेमचंद मुंशी थे?
यद्यपि, जब-जब प्रेमचन्द की चर्चा होती है तो प्राय: उनके नाम के आगे ‘मुंशी’ जोड़ दिया जाता है। केवल सामान्य बातचीत ही नहीं बल्कि साहित्यिक गोष्ठियों एवं अकादमिक पुस्तकों में भी यह नाम सुनने-पढ़ने को मिलता है पर प्रश्न यह है कि, क्या वाकई प्रेमचन्द ‘मुंशी’ थे? और यदि नहीं, तो फिर वह मुंशी प्रेमचन्द कैसे बन गए?
यह बात है जब वाराणसी के पास लमही ग्राम में डाकघर के मुंशी अजायबराय और आनंदी देवी के घर में एक पुत्र का जन्म हुआ है। पिता अजायबराय ने अपने पुत्र का नाम ‘धनपतराय’ रखा लेकिन संयुक्त परिवार में जन्में बालकों के भी क्या कोई एक नाम होता है? धनपतराय नाम अजायबराय के भाई को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने अपने भतीजे का नाम ‘नवाबराय’ रख दिया। जैसे-जैसे समय के साथ यह बालक बढ़ता गया और उसके अंदर की प्रतिभा भी संसार के सामने शनै:-शनै: प्रकट होने लगी।
यह प्रतिभा कहानी-लेखन के रूप में ‘जमाना पत्रिका’ के अंकों में लेखक ‘नवाबराय बनारसी’ के नाम से प्रकट होने लगी थी। इन कहानियों की भाषा-शैली उर्दू होती और कहानी में वर्णित स्थान भी यवन देश के ही लिए जाते। हालाँकि, यह कहानियाँ भले ही विदेशी स्थानों के नाम से लिखी जातीं पर इसमें निहित वेदना की त्रासदी और क्रान्ति की हुंकार का संदेश देश में नवजागरण के लिए ही होता था। स्पष्ट है कि यह नवजागरण देश की जनता को विदेशी हुकूमत के विरुद्ध जगाने के लिए था और जब ऐसी पांच कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’(अर्थात् देश का दुःख/मातम)के नाम से 1907 ई. में प्रकाशित हुआ तो राष्ट्रीय भावना का स्वर प्रबल होने के कारण इस कहानी संग्रह को ही अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया।
अंग्रेजी हुकूमत के इस रवैये के कारण उन्हें अपनी सुरक्षा हेतु पहचान बदलना आवश्यक हो गया, जिसमें प्रमुख रूप से नवाबराय नाम के बजाय ‘प्रेमचन्द’ नाम रखने की सलाह दी गई। यह सलाह जमाना पत्रिका के तत्कालीन संपादक दयानारायण निगम ने दी और नवाबराय बनारसी से वह प्रेमचन्द बन गए। प्रेमचन्द नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी जमाना पत्रिका के दिसंबर (1910 ई.) अंक में प्रकाशित हुई। साथ ही, उर्दू में लिखने वाले प्रेमचन्द अब हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि में लिखने लग गए, जिसमें उनकी पहली कहानी सौत नाम से सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसके बाद तो एक के बाद एक कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं एवं संकलन रूप में प्रकाशित होने लगीं, जिनमे प्रमुख रूप से पंचपरमेश्वर, आत्माराम, परीक्षा, मंत्र, सद्गति, ईदगाह, दूध का दाम, नशा और कफन जैसी तीन सौ प्रकाशित और चर्चित कहानियाँ हैं। यह सभी कहानियाँ ‘मानसरोवर’ के विविध खंडों में प्रकाशित हुई हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि, इन सभी कहानियों में भी प्रेमचन्द देश-प्रेम की भावना को सर्वोपरि रखते थे।
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यह 1930 ई० में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय था, जब देशपूज्य महात्मा गांधी ने प्रेमचन्द के व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होकर उन्हें सलाह दी कि एक ऐसी मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया जाए, जिसमें देश के नवांकुरित लेखकों की भावना को मुख्य धारा में लाने का कार्य किया जा सके। साथ ही इसके संपादन के परोक्ष सहयोग के साथ उन्होंने कानूनविद और भाषा विद्वान् कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को भी इसके सह-संपादन के लिए प्रेरित किया। जब पत्रिका के नाम को लेकर विचार-विमर्श किया जाने लगा तो कोई नाम विषयानुकूल नहीं जान पड़ा। अंत में, छायावाद के प्रवर्तक और महाकवि जयशंकर प्रसाद ने इस पत्रिका के लिए ‘हंस’ नाम सुझाया, जो सर्व-सम्मति से स्वीकार कर लिया गया और पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया।
प्रेमचंद मुंशी कैसे बन गए?
हंस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हो गया। उस समय प्रेमचंद ही इसके संस्थापक और मुख्य संपादक थे। बाद में 1935 ई. में जब गांधी की सलाह अनुसार के.एम.मुंशी भी हंस के संपादक-मंडल के सदस्य बन गए तो सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि आवरण पर किस संपादक का नाम पहले लिखा जाएगा।
स्पष्ट है कि, के.एम.मुंशी और प्रेमचन्द दोनों ही अपने क्षेत्र के सिद्ध-प्रसिद्ध व्यक्ति थे इसलिए यह निश्चित हुआ कि दोनों नाम साथ लिखे जायेंगे लेकिन बड़ा नाम होने के कारण कन्हैयालाल जी का उपनाम केवल ‘मुंशी’ ही लिखा जाएगा। संपादक-मंडल की सहमति के अनुसार, संपादक ‘मुंशी-प्रेमचन्द’ यानी मुंशी और प्रेमचन्द इस प्रकार लिखा जाएगा लेकिन जब पत्रिका के प्रथम अंक का आवरण प्रकाशित हुआ तो वह इस प्रकार था-‘
हंस’ संपादक
मुंशी प्रेमचन्द
मुंशी और प्रेमचंद दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं, भ्रमवशात् प्रेमचंद को ही मुंशी समझ लिया गया। यह प्रक्रिया लंबी चलती रही और प्रेमचंद मुंशी के नाम से प्रसिद्ध हो गए। पाठक जब भी पढ़ता है वह सामान्य रूप से लेखक के नाम पर इतना विचार नहीं करता, उसे इस ऊलजुलूल में नहीं पढ़ना, उसे इन सबसे क्या मतलब ? उसे तो आनंद लेना है रचना का, लेकिन ये नाम आगे इतना रूढ़ हो गया कि, मुंशी कहते ही प्रेमचंद का नाम अनायास ही मन-मस्तिष्क में आ जाता है।
के० एम० मुंशी ‘हंस’ पत्रिका के संपादक के रूप में १९३५ ई० में जुड़े, ये समस्या इसके बाद ही देखने को मिलती है, उससे पहले आप देखेंगे तो ‘हंस’ पत्रिका के संपादक के रूप में नाम ‘प्रेमचंद’ ही आया ‘मुंशी’ कभी नहीं।
पुत्र अमृतराय के विचार
हालाँकि एक और कारण है प्रेमचंद को मुंशी मान लेने का । पुत्र अमृत से जब पूछा गया तो उन्होंने इस संबंध में कहा – उस समय में ‘मुंशी’ शब्द सम्मान का सूचक था। प्रारंभ में कायस्थ और अध्यापक के लिए सम्मानसूचक शब्द ‘मुंशी’ प्रयोग कर लिया जाता था । संयोग से प्रेमचंद अध्यापक थे। उनके बेटे अमृतराय से जब इस संबंध में पूछा गया तो वे कहते हैं – प्रेमचंद जब तक जीवित रहे उन्होंने अपने जीवन काल में कहीं भी स्वयं के लिए मुंशी शब्द का प्रयोग नहीं किया, न ही उनकी किसी रचना में यह नाम देखने को मिलता है, जो उन्होंने स्वयं लिखा हो। ‘मुंशी’ शब्द समान का सूचक है पिताजी अध्यापक थे संभवतः उनके प्रशंसकों ने उन्हें ‘मुंशी प्रेमचंद’ मान लिया होगा, यह तथ्य अनुमान पर आधारित है।
पत्नी शिवरानी देवी
इस संबंध में ‘प्रेमचंद घर में’ जब शिवरानी देवी जी जब भी प्रेमचंद की चर्चा करती हैं, तो उन्होंने कहीं भी प्रेमचंद के लिए ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया, इससे स्पष्ट होता है कि, इससे पहले प्रेमचंद के लिए ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग नहीं होता था ।
इस संबंध में डॉ० लक्ष्मीकान्त पाण्डेय जी का लेख पठनीय है –
स्पष्ट है कि, प्रकाशन की त्रुटि के कारण यहाँ योजक चिह्न(-) का संकेत प्रकाशित नहीं हुआ और शब्दों का अर्थ ही बदल गया। जिससे हिंदी कथा-सम्राट प्रेमचन्द अब ‘मुंशी प्रेमचन्द’ के रूप में प्रख्यात हो गए, जो अभी तक पाठकों के जन-मानस के मन में ‘मुंशी’ जी के रूप में विराजमान हैं, लेकिन हिन्दी पाठक वर्ग को इस बात से परिचित होना चाहिए कि, प्रेमचंद कथा सम्राट थे, उपन्यास सम्राट थे, हिन्दी साहित्य के ध्रुवतारा थे, लेकिन ‘मुंशी’ नहीं थे, अगर होते तो वे स्वयं इस शब्द का इस्तेमाल अपनी रचनाओं में अवश्य करते।