काव्य हेतु /Kavya Hetu in Hindi/Sanskrit
PDF – काव्यशास्त्र
काव्य हेतु का अर्थ – काव्य हेतु से अर्थ/आशय – उस शक्ति या साधन से है जो, काव्य रचना में कवि की सहायता करते हैं ।
‘हेतु’ से आशय ‘कारण’ से है अर्थात् वह शक्ति या साधन जो कविता की रचना का कारण बनता है, ‘काव्य हेतु’ कहलाता है।
काव्य हेतु के भेद –
काव्य हेतु के प्रमुख रूप से तीन भेद माने गए हैं –
- प्रतिभा
- व्युत्पत्ति
- अभ्यास
प्रतिभा –
प्रतिभा से आशय उस विलक्षण बुद्धि से है जो कि, कवि को नवीन काव्य सर्जना की प्रेरणा देती है। प्रतिभा जन्मजात होती है। विद्वान आचार्यों ने प्रतिभा के लिए ‘निपुणता’ और ‘शक्ति‘ शब्द का भी प्रयोग किया है।
व्युत्पत्ति –
व्युत्पत्ति से आशय लोक या शास्त्र के ज्ञान से उत्पन्न संस्कार से है।
लोक व्यवहार के गहन निरीक्षण व, शास्त्रों के चिंतन-मनन से प्राप्त ज्ञान को व्युत्पत्ति कहा है।
व्युत्पत्ति को विद्वानों ने निपुणता भी कहा है। व्युत्पत्ति से आशय दक्षता या पांडित्य से है।
अभ्यास –
सतत अभ्यास कार्य में श्रेष्ठता लाता है। कवि अपनी रचना में श्रेष्ठता लाने के लिए किसी विषय विशेष पर बार-बार अभ्यास करता है। इसे भी अभ्यास कहते हैं।
कहा भी गया है –
‘करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान’
इसी प्रकार अभ्यास नामक काव्य हेतु के माध्यम से सामान्य कवि प्रतिभा वाला व्यक्ति भी अपनी रचना को श्रेष्ठ बना सकता है।
आचार्य मंगल ने ‘अभ्यास’ को ही प्रमुख काव्य हेतु स्वीकारा है।
समाधि – अतिरिक्त काव्य हेतु
प्रतिभा, व्युत्पत्ति, अभ्यास कके अतिरिक्त कहीं-कहीं एक और काव्य हेतु ‘समाधि’ का भी उल्लेख मिलता है। यहाँ ‘समाधि’ से आशय मन की एकाग्रता से है। यह मत श्यामदेव द्वारा प्रदत्त है।
जिसका उल्लेख ‘काव्यमीमांसा’ (राजशेखर) के चतुर्थ अध्याय में भी मिलता है। फिर भी काव्यशास्त्र जगत् में प्रमुख रूप से तीन काव्य हेतु प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास ही स्वीकारे गए हैं।
इन्हें भी देखें – काव्य लक्षण
काव्य हेतु विषयक विविध संस्कृत आचार्यों के अभिमत
इस विषय में विविध आचार्यों ने अपने अभिमत दिए हैं। वे इस प्रकार हैं –
आचार्य भरतमुनि –
आचार्य भरतमुनि ने काव्यहेतु पर सर्वप्रथम विचार किया । उनका मत है कि –
“गुरूपदेशा दध्येतुं शास्त्रं जड़ धियोप्लयम्।काव्यं तु जायते जातु कस्य चित् प्रतिभावतः।।”
आचार्य भरतमुनि के अनुसार गुरु के उपदेश से जड़बुद्धि भी शास्त्र अध्ययन में तो सक्षम हो सकता है किन्तु, काव्य सृजन तो किसी प्रतिभाशाली द्वारा ही संभव है |
आचार्य दण्डी –
दंडी ने काव्य हेतुओं पर विचार करते हुए कहा कि –
”नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम् |अमंदचाभ्योगोस्या करणं काव्य सम्पदः ||”
इस प्रकार दंडी ने नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल शास्त्र ज्ञान और अमन्द अभियोग (अभ्यास) को काव्य हेतुओं के रूप में स्वीकारा।
यहाँ उन्होंने अपने से पूर्व आचार्यों के मतों में संशोधन करते हुए प्रतिभा के साथ-साथ दो काव्य के हेतु और स्वीकारे |
आचार्य रुद्रट –
रुद्रट ने अपने ग्रन्थ ‘काव्यालंकार’ में शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास ये तीन काव्य हेतु माने | इन्होंने ‘निपुणता’ के लिए ‘व्युत्पत्ति’ शब्द का प्रयोग किया है |
रुद्रट ने प्रतिभा के दो भेद ‘सहजा’ और ‘उत्पाद्या’ भी किए |
उनके अनुसार जो जन्मजात है वह ‘सहजा’ है और यही श्रेष्ठ और मूल है | दूसरी ‘उत्पाद्या’ इसका सम्बन्ध व्युत्पत्ति से है और यह सहजा, प्रतिभा के संस्कार में सहायक होती है |
रुद्रट ने व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए लिखा कि, छंद, व्याकरण, कला, लोक स्थिति, पद और पदार्थ के विशेष प्रकार के ज्ञान से प्राप्त युक्तियुक्त अर्थात् उचित-अनुचित का विवेक ही व्युत्पत्ति कहलाता है |
”छंदो व्याकरण कला लोकस्थिति पद पदार्थ विज्ञानात् |युक्तायुक्त विवेक व्युत्पत्तिरियं समासेन ||”
कुंतक –
कुंतक ने भी रुद्रट के मत का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी तीन भेद – शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास स्वीकारे |
आचार्य वामन –
आचार्य वामन ने ‘लोक’, ‘विद्या’ और ‘प्रकीर्ण’ को काव्य हेतु के रूप में स्वीकारा | उनके अनुसार ‘लोक’ से आशय लोक व्यवहार के ज्ञान से है |
वहीं ‘विद्या’ को उन्होंने शास्त्र ज्ञान से जोड़ा है | ‘प्रकीर्ण’ को उन्होंने विस्तार से लेते हुए इसमें काव्यानुशीलन एवं अभ्यास आदि को समाहित किया है |
अभिनवगुप्त –
अभिनवगुप्त का मत है कि, ‘अपूर्वस्तु निर्माण क्षमा प्रज्ञा’
इन्होंने अपूर्व वस्तु के निर्माण में सक्षम बुद्धि को प्रतिभा माना |
अभिनवगुप्त ने प्रतिभा पर विचार करते हुए उसके दो भेद स्वीकारे – ‘आख्या’ और ‘उपाख्या’ |
उनके अनुसार ‘आख्या’ कवि प्रतिभा और ‘उपाख्या‘ आलोचकीय प्रतिभा है |
राजशेखर –
राजशेखर ने प्रतिभा को दो भागों में विभाजित किया – ‘कारयित्री प्रतिभा’ और ‘भावयित्री प्रतिभा’ |
इसमें से प्रथम ‘कारयित्री प्रतिभा’ काव्य सर्जन में सक्षम बनाने वाली प्रतिभा है जबकि द्वितीय ‘भावयित्री प्रतिभा’ काव्य को हृदयंगम बनाने में सहायता करती है |
इसी प्रकार राजशेखर ने व्युत्पत्ति के भी दो भेद बहुलता और उचितानुचित का विवेचन किया है |
आनंदवर्धन –
आनंदवर्धन ‘व्युत्पत्ति’ और ‘अभ्यास’ की अपेक्षा ‘प्रतिभा’ पर ही बल देते हैं |
भट्टतौत –
‘भट्टतौत‘ ने ‘प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता’ कहकर दर्शाया कि, ‘प्रतिभा’ नए-नए अर्थों को स्वतः उद्घाटित करने वाली है |
कुंतक –
आचार्य कुंतक का मत है कि, ‘प्राक्तानाद्यतन संस्कारपरिपाकप्रौढ़ा प्रतिभा काचिदेव’ कविशक्तिः |‘ इस प्रकार इन्होंने ‘कवि शक्ति’ को ही प्रतिभा माना |
मम्मट –
आचार्य मम्मट ने कहा कि ‘शक्ति’ (प्रतिभा), ‘निपुणता’ (लोक व शास्त्र का अध्ययन व निरीक्षण) तथा ‘अभ्यास’ ये तीन काव्य हेतु हैं |
”शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्याद्य वेक्षात् |काव्यज्ञ शिक्षया अभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ||”
मम्मट का मत है कि, ‘शक्तिः कवितत्व बीजः संस्काररूपः |’अर्थात् शक्ति (प्रतिभा) कविततत्त्व निर्माण के लिए बीजरूप संस्कार है |
इन्होंने ‘व्युत्पत्ति’ के लिए ”निपुणता’‘ शब्द प्रयुक्त किया | वे लिखते हैं – ‘निपुणता लोक शास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् |’
वाग्भट्ट –
वाग्भट्ट ने ‘प्रतिभा‘ को सर्वप्रमुख माना है | उनका मत है कि ‘प्रतिभा’ कारण अर्थात् मूल हेतु है |
वहीं ‘व्युत्पत्ति’ आभूषण और ‘अभ्यास’ मात्र एक ग्राह्य हेतु है |
‘
‘प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणं |भूशोत्ययत्ति कूदभ्यास इत्याद्य कविसंकथा ||”
वाग्भट्ट कहते हैं कि, प्रतिभा ही सर्वतोमुखी है –
”प्रसन्नपद नव्यार्थ युक्तत्युद्धोधविधायिनी |स्फुरन्ती सत्वकवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी ||’
जगन्नाथ –
पंडितराज जगन्नाथ ने प्रतिभा पर विचार करते हुए कहा कि ‘सा च काव्य घटनानुकूल शब्दार्थोपस्थितः |’ अर्थात् काव्य रचनानुकूल शब्दार्थ की उपस्थिति ही ‘प्रतिभा’ है |
हेमचन्द्र –
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार ‘प्रतिभास्य हेतुः | व्युत्पत्यासाभ्यां संस्कार्याः |’ अर्थात् ‘प्रतिभा’ ही काव्य हेतु है, ‘व्युत्पत्ति‘ और ‘अभ्यास‘ उसका संस्कार करते हैं |
काव्य हेतु के सम्बन्ध में मुख्य रूप से तीन ही भेद स्वीकार किए गए – प्रतिभा, व्युत्पत्ति, अभ्यास | इस सम्बन्ध में विभन्न मत हमने ऊपर लेख के माध्यम से पढ़ लिए हैं |
इसके अतिरिक्त कुछ आचार्यों ने ‘समाधि’ को भी काव्य का हेतु माना है |
समाधि –
यह काव्य हेतु श्यामदेव द्वारा प्रदत्त है | श्यामदेव ने कहा कि, काव्यकर्म में कवि की समाधि सर्वोत्कृष्ट साधन है |
समाधि से तात्पर्य कवि का काव्य कर्म में लीन हो जाने से है | इसके सम्बन्ध में कुछ आचार्यों ने अपने मत प्रकट किए हैं, आपको उन्हें जानना चाहिए –
- आचार्य राजशेखर ने समाधि को ‘आभ्यंतर प्रयत्न’ कहा |
- इनके अनुसार मन की एकाग्रता समाधि है |
- वामन ने समाधि को ‘अवधान’ नाम से अभिहित किया |
काव्यहेतु के सम्बन्ध में चार प्रकार के विभिन्न दृष्टिकोण –
- प्रतिभा अनिवार्य – भामह, वामन, आनंदवर्धन, मम्मट | इन्होंने प्रतिभा को अनिवार्य काव्य हेतु माना |
- ‘व्युत्पत्ति‘ और ‘अभ्यास‘ काव्य के हेतु हैं तथा प्रतिभा काव्य का अनिवार्य हेतु है – आनंदवर्धन |
- प्रतिभा काव्य का हेतु है और व्युत्पत्ति और अभ्यास प्रतिभा के हेतु हैं – हेमचन्द्र, वाग्भट्ट द्वितीय |
- प्रतिभा के अभाव में भी काव्य सृजन हो सकता है – एकमात्र समर्थक दण्डी |
काव्यहेतु की सँख्या – (एक दृष्टि में)
रीतिकालीन आचार्यों की दृष्टि में काव्य हेतु
- सूरति मिश्र – (3) शक्ति, व्युत्पत्ति अभ्यास
- श्री पति – (1) इन्होंने शक्ति को ‘सपुण्य विशेष’ कहा तथा प्रतिभा से इसको अलग किया है |
- जगन्नाथ प्रसाद भानु – (3) शक्ति, निपुणता, अभ्यास |
- बिहारी लाल भट्ट – (3) पूर्व संस्कारित (प्रतिभा) सद्ग्रन्थों का अध्ययन, अभ्यास |