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नाथ साहित्य परिचय / प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ

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नाथ साहित्य

नाथ साहित्य का परिचय
प्रमुख कवि उनकी रचनाएँ एवं विशेषताएँ

इस लेख में हम आपको ‘नाथ साहित्य’ के परिचय से परिचित कराएँगे, जिनमें ‘नाथ साहित्य’ क्या है ? ‘नाथ’ शब्द का अर्थ, नाथों का उद्भव, सिद्ध और नाथ साहित्य में अन्तर, नाथों की सँख्या, नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक, इनकी विशेषताएँ, नाथ साहित्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ इत्यादि बिंदु शामिल हैं | कोशिश की गई है कि, नाथ साहित्य से सम्बंधित पूरी जानकारी आप तक पहुँचाई जाए ताकि, जब आप इसे पढ़ें तो आसानी से ‘नाथ साहित्य’ को समझ सकें |

 

‘नाथ साहित्य’ का परिचय

 

सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योग–साधना पद्धति की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप आदिकाल में जिस ‘हठयोग–साधना’ पद्धति का आविर्भाव हुआ, हिंदी साहित्य में उसे ही ‘नाथ पंथ/सम्प्रदाय’ के नाम से जाना जाता है तथा इन नाथों से द्वारा रचा गया साहित्य ‘नाथ साहित्य’ कहा जाता है ।

 

‘नाथ पंथ’ के साधकों ने अपने को ‘योगी’ कहकर सम्बोधित किया है । योगी के विषय में एक कहावत है कि, ”रमता जोगी बहता पानी” । मतलब यह कि, इनकी दिशा क्या होगी इसका कुछ भी ठिकाना नहीं है । ‘नाथ साहित्य’ के सम्बन्ध में इसी उक्ति को प्रस्तावित किया जा सकता है ।

 

‘नाथ सम्प्रदाय’ उन साधकों का सम्प्रदाय है जो, ‘नाथ’ को परम तत्व के रूप में स्वीकार करके उसकी प्राप्ति के लिए निरंतर योग साधना करते थे तथा इस सम्प्रदाय में दीक्षित होकर अपने नाम के आगे ‘नाथ’ उपाधि जोड़ते थे ।

 

इनकी साधना पद्धति ‘हठयोग’ पर आधारित थी, अतः इन्हें योगी तथा ‘नाथ सम्प्रदाय’ को ‘योगी सम्प्रदाय’ भी कहा जाता था । नाथ पंथ, नाथ सम्प्रदाय, अवधूत मत, योग मत, योग सम्प्रदाय , कनफटा, गोरखनाथी सम्प्रदाय आदि नामकरण इस मत के प्रचलित सिद्धांत, दर्शन, साधना के आधार पर अथवा सम्प्रदाय के प्रवर्तक आदि के आधार पर किए गए हैं।

 

‘नाथ पंथ’ के आदि प्रवर्तक आदि नाथ अर्थात् शिव माने जाते हैं, उनसे मत्स्येन्द्रनाथ ने शिक्षा ली, मत्स्येन्द्रनाथ से ‘गोरखनाथ’ ने शिक्षा ली । मध्ययुग में ‘गोरखनाथ’ ने ही इस सम्प्रदाय को विकसित किया । इस सम्प्रदाय के साधक अपने नाम के आगे ‘नाथ’ शब्द जोड़ते हैं, कान छिदवाने के कारण इन्हें ‘कनफटा’ योगी, दर्शन कुण्डल धारण करने के कारण दर्शनी और गोरखनाथ के अनुयायी होने के कारण ‘गोरखनाथी’ भी कहा जाता है।

 

‘नाथ’ शब्द का अर्थ –

 

‘ना’ का अर्थ है अनादि रूप और ‘थ’ का अर्थ है (भुवनत्रय का ) स्थापित होना । इस प्रकार ‘नाथ’ शब्द का स्पष्ट अर्थ है – वह अनादि धर्म जो तीनों भुवनों की स्थिति का कारण है ।

शक्ति संगम तंत्र के अनुसार ‘ना’ शब्द का अर्थ नाथ-ब्रह्म जो मोक्ष-दान में दक्ष है, उनका ज्ञान कराना है और ‘थ’ का अर्थ है (अज्ञान के सामर्थ्य को) स्थगित करने वाला । ‘गोरखनाथ’ ने ‘नाथ’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया है – एक योगी अर्थ में और दूसरा परमतत्त्व के अर्थ में ।

 

‘नाथ साहित्य’ में ‘नाथ’ शब्द का अर्थ है – मुक्ति देने वाला। स्पष्ट है कि, नाथ-पंथ अपनी ‘हठयोग’ पद्धति द्वारा मानव-मन को सांसारिक आकर्षणों और भोग-विलास से मुक्त करने पर जोर देता है । यही कारण है कि, सम्पूर्ण ‘नाथ साहित्य’ में प्रमुख रूप से तीन बातों पर जोर दिया गया है –

(१). योगमार्ग (२). गुरुमहिमा (३). पिण्ड ब्रह्माण्डवाद ।

 

नाथपंथ का उद्भव –

 

‘नाथ पंथ’ का उद्भव किस प्रकार से हुआ इस पर विद्वानों में मतभेद हैं । ‘नाथ पंथ’ के सम्बन्ध में यहाँ इतना समझना चाहिए कि, नाथों का सिद्धों से गहरा सम्बन्ध था । क्योंकि 84 सिद्धों की जो सूची मिलती है, उनमें से कई का सम्बन्ध नाथ परम्परा से भी था । इससे यह स्पष्ट होता है कि, नाथों का आगमन सिद्ध परम्परा से ही हुआ । कैसे हुआ ?  इसे जानिए –

 

आप जानते हैं आदिकाल में जब सिद्ध एवं नाथों की परम्परा विकसित हो रही थी उस समय बाहरी आक्रमण होने प्रारम्भ हो गए थे, अतः मुसलमानों के आक्रमण से त्रस्त होकर वज्रयानी सिद्धों के आश्रमस्थल नालंदा एवं विक्रमशिला के ध्वस्त होने पर सिद्धों ने नेपाल की तराइयों में जाकर अपने प्राणों की रक्षा की |

 

वहाँ इनका संपर्क शैव साधकों से हुआ, दोनों साधकों के मेल ने नाथ-पंथ को जन्म दिया, नाथ पंथ की उत्पत्ति का एक और कारण भी था जिससे यह सिद्धों की परम्परा से अलग हुए, सिद्ध मार्गी भोगवादी थे जिसमें पंचमकार जैसी दुष्प्रवृत्ति को ग्रहण करना अनिवार्य था, कुछ सिद्धों ने इस मार्ग से विलग होकर योगमार्ग को अपना साधन बनाया और नाथों की अलग परम्परा विकसित की ।

 

‘वज्रयान’ जो बौद्धों की एक शाखा थी जिससे सिद्धों का सम्बन्ध था, उसी वज्रयान की सहजसाधना आगे चलकर नाथ सम्प्रदाय के रूप में पल्लवित हुई ।

 

नाथ साहित्य के सन्दर्भ में विद्वानों के मत –

 

  • राहुल सांकृत्यायन जी ने भी ‘नाथ साहित्य’ को सिद्धों की परम्परा का विकसित रूप माना है।
  • नाथपंथ की उत्पत्ति के सन्दर्भ में डॉ० नगेंद्र जी का विचार है कि, ”सिद्धों की वाममार्गी भोगसाधना योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई ।
  • डॉ० रामकुमार वर्मा जी नाथों के सम्बन्ध में कहते हैं कि, ”नाथपंथ के चरमोत्कर्ष का समय 12 शती से 14 वीं शताब्दी के अंत तक है – नाथपंथ से ही भक्तिकाल के संतमत का विकास हुआ था, जिसके प्रथम कवि कबीर थे ।”

इस तरह नाथ सम्प्रदाय सिद्धों का ही विकसित रूप है, अतः ‘नाथपंथ’ को सिद्धों व संतों के बीच की कड़ी कहना चाहिए ।

 

डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘नाथपंथ’ या ‘नाथ-संप्रदाय’ के सिद्धमत, सिद्ध-मार्ग, योग-मार्ग, योग-सम्प्रदाय, अवधूत-मत एवं अवधूत-सम्प्रदाय नाम से भी प्रसिद्ध हैं । उनके कथन का यह अर्थ नहीं कि, सिद्ध मत और नाथ मत एक ही हैं । ”उनका आशय यह है कि, इन दोनों मार्गों को एक ही नाम से पुकारा जाता है ।” इसका कारण यह है कि, मत्स्येन्द्रनाथ (मच्छन्दरनाथ) तथा गोरखनाथ सिद्धों में भी गिने जाते थे ।

वस्तुतः इस लोकचर्या के मूल में ही सिद्धमत एवं नाथमत का अन्तर छिपा हुआ है । सिद्धगण नारी-भोग में विश्वास करते थे, किन्तु ‘नाथपंथी’ इसके घोर विरोधी थे ।

 

यह प्रसिद्ध है कि, मत्स्येन्द्रनाथ नारी-साहचर्य के आचार में जा फँसे थे, उनके शिष्य गोरखनाथ ने उनका उद्धार किया था ।

इस सम्बन्ध में एक उक्ति बड़ी प्रसिद्ध है – जाग मच्छन्दर गोरख आया’

 

सिद्ध और नाथ साहित्य में अंतर –

 

सिद्ध और नाथ साहित्य के बीच कई तात्विक समता और विषमता देखने को मिलती है । तांत्रिक साधना की व्यापक स्वीकृति सिद्ध साहित्य में प्राप्त होती है तो ‘नाथ साहित्य’ में भी प्राप्त होती है । परन्तु नाथों ने साधना में योगक्रिया को ही अपना आधार बनाया ।

 

नाथों का सिद्धों से जो विरोध वाममार्गी साधना को लेकर हुआ था उसमें , पंचमकार – अर्थात् मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन शामिल हैं, सिद्धों की साधना के ये अनिवार्य अंग थे और इनका भोग सिद्धों के लिए आवश्यक था । नाथों ने इस मार्ग से हटकर लोक जीवन में शुचिता, अहिंसा और आचरण की पवित्रता जैसे श्रेष्ठ मानवीय मनोभावों को प्रधानता दी एवं इसे अपने पंथ का लक्ष्य रखा ।

इसके साथ-साथ ‘नाथ-पंथ’ ने शैवदर्शन और पतंजलि के हठयोग को मिलाकर अपने पंथ का वैचारिक आधार तैयार किया |

 

सिद्धों के समान ‘नाथ-पंथ’ ने भी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना, नाद बिंदु की साधना, षट्चक्र शून्य भेदन, शून्यचक्र में कुंडलिनी का प्रवेश आदि अन्तस्साधनात्मक अनुभूतियों को योग के लिए आवश्यक माना ।

 

‘नाथपंथ’ में शून्यवाद के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया गया, जो संभवतः उन्होंने ‘वज्रयान’ से ही ग्रहण किया था । सामाजिक विषमता, उदाहरण के लिए जातिप्रथा, छुआछूत, धार्मिक मतभेद, मूर्तिपूजा आदि बाह्याचारों का विरोध नाथों ने किया था । इसके विपरीत सिद्ध जहां सिर्फ उच्च जाति के लोगों को ही शरण देता था वहां नाथों ने समभाव से सबको शरणता दी ।

 

निष्कर्ष –

 

निष्कर्षतः देखा जाए तो सिद्ध साहित्य और नाथ साहित्य में कुछ समानताएँ थीं तो कुछ अंतर भी था, समानताएं इसलिए भी हैं क्योंकि ‘नाथ साहित्य’ परम्परा सिद्धों का ही एक विकसित रूप है, इन्होंने कुछ विशेषताएँ सिद्धों से ग्रहण कीं, जो परित्यज्य थीं, उन्हें त्यागा और अपना अलग मार्ग विकसित किया | अतः सिद्ध और नाथ में हमें पर्याप्त अंतर देखने को मिलता है, इसलिए दोनों को एक नहीं समझना चाहिए। हाँ! इन्हें सिद्धों का विकसित रूप अवश्य कहा जा सकता है ।

 

नाथों की सँख्या –

 

जिस प्रकार से सिद्धों की संख्या (84)चौरासी’ है, उसी प्रकार नाथों की सँख्या (9) ‘नौ’ हैं और इन नाथों को ‘नवनाथ’ के नाम से भी जाना जाता है।

‘गोरक्षसिद्धांत संग्रह’ में नाथ मार्गी प्रवर्तकों के जो नाम गिनाए गए हैं वे ‘नवनाथ’ हैं – नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पटनाथ, जलंधरनाथ, और मलयार्जुन।

 

नवनाथों के नामों और क्रम में विविध अंतर देखने को मिलता है । नाथों की सँख्या का प्रचलित क्रम इस प्रकार है – आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, जालंधरनाथ, गोरक्षनाथ, नागार्जुन, सहस्त्रार्जुन, दत्तात्रेय, देवदत्त और जड़भरत । जनश्रुति है कि, आदिनाथ साक्षात् शिव थे । मत्स्येन्द्रनाथ और जलंधरनाथ उनके शिष्य थे।

 

नाथ संप्रदाय/पंथ के प्रवर्तक –

 

लौकिक रूप में ‘मत्स्येन्द्रनाथ’ इस पंथ के आदिप्रवर्तक हैं, कहा जाता है कि, सिंघलद्वीप की रूपसियों में आसक्त हो जाने से मत्स्येन्द्रनाथ साधना से च्युत होकर कुएँ में पड़े थे, तब गोरखनाथ ने उन्हें उद्बोधन दिया था, अतः नाथ पंथ के वास्तविक संस्थापक ‘गोरखनाथ’ ही माने जाते हैं।

 

नाथ साहित्य की विशेषताएँ

नाथ साहित्य की विशेषताएँ

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(१). ये साहित्यिक दृष्टि से विशेष महत्त्व नहीं रखते । परन्तु जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं के चित्रण में नाथ-साहित्य का महत्त्व नकारा नहीं जा सकता । वज्रयानियों के गर्हित अंश को त्यागकर इन्होंने मानव-जीवन के चारित्रिक अभ्युत्थान में दृढ़ता से योगदान दिया ।

(२). ज्ञान की अलख जगाने के लिए इन्होंने जो पद्धति अपनाई, वह भक्तिकाल के संतों को विरासत में मिली है ।

(३). नाथ-साहित्य का वर्ण्य-विषय भावावेग शून्य शुष्क ज्ञान है, गुरु को महत्त्व दिया है ।

(४). इन्होंने आचरण की शुद्धता एवं चारित्रिक दृढ़ता पर बल दिया है, तथा इन्द्रिय निग्रह, नारी से दूर रहनी की बात कही है ।

(५). गृहस्थ जीवन की उपेक्षा से नीरसता एवं रूखापन आ गया है ।

(६). विषय की रूक्षता दूर करने के लिए उन्होंने कई रोचक पद्धतियों को अपनाया है तथा गेयपद, प्रश्नोत्तर शैली द्वारा श्रोताओं को आकृष्ट किया है ।

(७). उलटबासियों द्वारा विषय निरूपण किया गया है ।

(८). इन्द्रियनिग्रह के बाद प्राणसाधना, फिर अन्तःसाधना पर बल दिया है । अन्तःसाधना के लिए अनेक क्रियाओं का उल्लेख किया है । जैसे – नाड़ी साधना, कुण्डलिनी, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, ब्रह्मरंध्र, षट्चक्र, सुरतयोग, अनहदनाद आदि ।

(९). पर्यटक होने के कारण इनकी भाषा में अनेक बोलियों व भाषाओँ का मेल है, पर पूर्वी हिंदी का प्रभाव अधिक है ।

 

नाथ साहित्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ –

 

जब हम नाथों की सँख्या की बात करते हैं तो, वे नौ हैं, लेकिन नाथ साहित्य के प्रमुख कवियों की बात करते हैं तो इनमें वही कवि शामिल किए जाते हैं, जिन्होंने नाथ साहित्य के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । इनमें गोरखनाथ एवं मत्स्येन्द्रनाथ का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है, इनके अलावा नाथ साहित्य के अन्य प्रमुख कवि हैं – जालंधरपा, गोपीचंद, भरथरी आदि ।

यहाँ पर हम ‘नाथ-साहित्य’ के उन्हीं कवियों का परिचय और उनकी रचनाओं के बार जानेंगे जो परीक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होंगे । नाथ कवियों का संक्षिप्त परिचय कुछ इस प्रकार है –

 

गोरखनाथ –

 

ये वास्तविक रूप से ‘नाथ-सम्प्रदाय’ के प्रवर्त्तक माने जाते हैं, ,मूलतः ‘गोरखनाथ’ मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे लेकिन सिद्धों के मार्ग का विरोध कर इन्होंने ‘नाथपंथ’ की स्थापना की । गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ शिव थे, उनके पश्चात् आए तथा उनके आचरण का विरोध करके गोरखनाथ ने ‘नाथ सम्प्रदाय’ की नींव डाली ।

 

यद्यपि गोरखनाथ के सन्दर्भ में अधिकांश ऐतिहासिक जानकारियां अनुपलब्ध हैं, लेकिन राहुल सांकृत्यायन के अनुसार इनका जन्म-समय 845 ई० के आस-पास है, वहीँ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार इनका जन्म-समय नवीं शती तथा शुक्ल जी के अनुसार 13 वीं शती ठहरता है । नवीन शोधों के आधार पर शुक्ल जी की धारणा की ही पुष्टि हुई है । यही हाल इनकी रचनाओं में भी रहा है जिनका परिचय निम्न्वत् है –

 

गोरखनाथ की रचनाएँ –

 

सामान्यतः गोरखनाथ जी के ग्रंथों की सँख्या 40 बताई जाती है । मिश्रबंधुओं ने ‘गोरखनाथ’ के संस्कृत ग्रंथों की संख्या नौ (९) मानी है जबकि, हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने (28) अट्ठाईस पुस्तकों का उल्लेख किया है । गोरखनाथ की रचनाओं का संकलन सर्वप्रथम डॉ० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल जी ने ‘गोरखबानी’ शीर्षक से 1930 ई० में प्रकाशित करवाया था । जिसमें ‘सबदी’ को वह सबसे प्रामाणिक रचना मानते हैं ।

 

गुरु गोरखनाथ द्वारा रचित जो (40) चालीस रचनाएँ मानी जाती हैं, उनमें डॉ० पीताम्बर बड़थ्वाल जी ने गोरखनाथ द्वारा रचित चौदह (14) कृतियाँ मानीं हैं।

जिनके नाम हैं –

  1. सबदी (सबसे प्रामाणिक रचना)
  2. पद
  3. प्राणसंकली
  4. शिष्यादरसन
  5. नरवैबोध
  6. अभैमात्रा जोग
  7. आत्मबोध
  8. पंद्रह तिथि
  9. सप्तवार
  10. मछीन्द्र गोरखनाथ
  11. रोमावली
  12. ग्यानतिलक
  13. ग्यान चौंतीसा
  14. पंचमात्रा

 

आचार्य शुक्ल जी के अनुसार ये रचनाएँ गोरखनाथ जी के द्वारा नहीं अपितु, इनके अनुयायियों द्वारा रची गई थी । गोरखनाथ जी के द्वारा संस्कृत ग्रंथों की रचना भी की गई बतलाया जाता है, जो इस प्रकार हैं –

 

गोरखनाथ जी के संस्कृत ग्रंथ –

  • सिद्ध-सिद्धांत पद्धति
  • विवेक मार्तण्ड
  • शक्ति संगम तंत्र
  • निरंजन पुराण
  • विराट पुराण

 

‘गोरखनाथ’ की रचनाओं का वर्ण्य-विषय गुरुमहिमा, इन्द्रियनिग्रह, प्रंसाधना, वैराग्य, मनःसाधना, कुंडलिनी जागरण, शून्य समाधि आदि है । नीति और साधना पर गोरखनाथ ने विशेष बल दिया है ।

 

डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी इनके विषय में कहते हैं कि,

[blockquote align=”none” author=””]’शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ । भारतवर्ष के कोने-कोने में इनके अनुयायी आज भी पाए जाते हैं । भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग ही था, वे अपने युग के सबसे बड़े नेता थे ।[/blockquote]

 

गोरखनाथ’ का सम्प्रदाय ‘नाथ-सम्प्रदाय’ के नाम से प्रसिद्ध है । इन्होंने ही ‘हठयोग’ का उपदेश दिया था । हठयोगियों के ‘सिद्ध-सिद्धांत पद्धति’ ग्रन्थ के अनुसार ‘ह’ का अर्थ है सूर्य तथा ‘ठ’ का अर्थ है चंद्र । इन दोनों के योग को ही ‘हठयोग’ कहते हैं । इस मार्ग में विशवास करने वाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर और मन को शुद्ध करके शून्य समाधि लगाता था और वहीं ब्रह्म का साक्षात्कार करता था ।

 

गोरखनाथ ने लिखा है कि, धीर वह है जिसका चित्त विकार साधन होने पर भी विकृत नहीं होता –

[blockquote align=”none” author=””]नौ लख पातरि आगे नाचैं, पीछे सहज अखाड़ा ।
ऐसे मन लै जोगी खेलै, तब अंतरि बसै भंडारा ।।[/blockquote]

गोरखनाथ की कविताओं से स्पष्ट है कि, भक्तिकालीन संतमार्ग के भावपक्ष पर ही उनका प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि भाषा और छंद भी प्रभावित हुए हैं । इस प्रकार उनकी रचनाओं में हमें आदिकाल की वह शक्ति छिपी मिलती है, जिसने भक्तिकाल की कई प्रवृत्तियों को जन्म दिया।

मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ जी को हिंदी का प्रथम गद्य लेखक माना है, लेकिन जो गद्यांश इसके प्रमाण में उन लोगों ने उद्धृत किया है, वह अप्रमाणिक है ।

 

गोरखनाथ की भाषा –

 

इनकी भाषा को खड़ीबोली कहा जा सकता है क्योंकि इनकी भाषा में पंजाबी,भोजपुरी,मराठी, गुजरती के शब्दों का प्रयोग यत्र-तत्र दिखाई पड़ता है ।

 

मत्स्येन्द्रनाथ –

 

ये आदिनाथ के शिष्य थे । नेपाल में इन्हें अवलोकितेश्वर, बुद्ध का अवतार माना जाता है । कश्मीर ‘शैव सम्प्रदाय’ में भी इनका सम्मान है । बंगाल निवासी मीननाथ और मत्स्येन्द्रनाथ दोनों एक ही हैं । इनकी रचनाएँ नेपाल दरबार लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं – ‘कौल निर्णय ज्ञान’ ‘अकुलवीरतन्त्र’ ‘कुलानन्द’ ज्ञानकारिका आदि इनके ग्रन्थ हैं । भाषा इनकी संस्कृत है और इनका जन्म समय ईसा की नवीं शताब्दी माना जाता है ।

 

जलंधरनाथ –

 

ये कापालिक मत के प्रवर्तक हैं और आदिनाथ शिव के शिष्य माने जाते हैं । मत्स्येन्द्रनाथ के समकालीन थे । इनके द्वारा रचित सात ग्रन्थ बताए जाते हैं जिनमें दो मगही भाषा में हैं – ‘विमुक्त मंजरी गीत’ और ‘हुंकार’ । ‘जलंधरपा’ के कुछ पद संतबानी संग्रह में ‘जलन्ध्रीपा’ के पद’ नाम से संगृहीत हुए ।

 

नाथ साहित्य के अन्य कवि –

 

जिन अन्य कवियों ने नाथ साहित्य ले विकास में योगदान दिया है, उनमें चौरंगीनाथ, गोपीचंद, चुणकरनाथ, भरथरी, जालंधरपा आदि प्रसिद्ध हैं । इन कवियों की रचनाओं में उपदेशात्मक तथा खंडन-मंडन की प्रवृत्ति हमें मिलती है ।

 

तेरहवीं शती में इन सभी ने अपनी वाणी का प्रचार किया था । ये सभी हठयोगी प्रायः गोरखनाथों की भावों का अनुकरण करते थे, अतः इनकी रचनाओं में कोई उल्लेखनीय विशेषता हमें देखने को नहीं मिलती । गोरखनाथ की हठयोग साधना में ईश्वरवाद व्याप्त था । इन हठयोगियों ने भी उसका प्रचार किया, जो रहसयवाद के रूप में प्रतिफलित हुआ और जिसका भक्तिकाल में कबीर दादू आदि ने अनुकरण किया ।

 

उम्मीद है ‘नाथ साहित्य’ से सम्बंधित इस लेख से आप भलीभाँति परिचित हुए होंगे, यदि आपको इस लेख में कोई त्रुटि नजर आए या अपनी कोई राय आप देना चाहते हैं तो कमेंट में अपनी बात अवश्य लिखिएगा, हमें बेहद ख़ुशी होगी, चाहें तो आप हमें in**@hi************.com पर ई-मेल भी कर सकते हैं।

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हिन्दी ज्ञान सागर ब्लॉग में आने के लिए आपका दिल की गहराइयों से शुक्रिया ।

इन्हें भी पढ़ें – आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ || आदिकालीन साहित्य की परिस्थितियाँ एवं विशेषताएँ || आदिकाल प्रश्नोत्तरी

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