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सिद्ध साहित्य परिचय
इस लेख में हम आपको ‘सिद्ध साहित्य’ से सम्बंधित पूरी जानकारी देने की कोशिश करेंगे |
सिद्ध शब्द से तात्पर्य –
‘नागरी प्रचारिणी सभा’ से प्रकाशित शब्दकोश के अनुसार ‘सिद्ध’ वह होता है जिसने योग या तप द्वारा अलौकिक लाभ या सिद्धि प्राप्त की हो | सिद्धों का निवास ‘भुवलोक’ कहा गया है |
सामान्यतः अलौकिक शक्तियों से युक्त व्यक्ति को सिद्ध माना जाता है | परन्तु जब साहित्य में चौरासी (84) सिद्धों की चर्चा की जाती है तो बौद्ध धर्म की महायान शाखा से विकसित हुए ‘वज्रयान’ या ‘सहजयान’ सम्प्रदाय के आचार्य सिद्ध कहलाते हैं |
ये सिद्ध तांत्रिक साधना करने में दक्ष थे, और अलौकिक शक्तियों से संपन्न माने जाते थे | अति प्राकृतिक शक्तियों से संपन्न सिद्ध देवों , यक्षों ,डंकनियों आदि के स्वामी माने जाते थे | तंत्र-मंत्र, योग, समाधि, आदि द्वारा साधना करके सिद्धियों को प्राप्त करते थे |
पूर्वी भारत में आठवीं शताब्दी से ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक साधना करने वाले इन सिद्धों का समाज पर बहुत अधिक प्रभाव रहा |
सिद्धों का क्षेत्र विस्तार –
इनका प्रभाव वैसे तो उस समय सम्पूर्ण भारत पर था और इनके साधना-स्थल भी समस्त भारत में फैले हुए थे, लेकिन विशेष रूप से इनका प्रभाव पूर्वी और उत्तर भारत पर अधिक पड़ा | इन सिद्धों के प्रमुख साधना केंद्र भारत में बंगाल, उड़ीसा, और कामरूप में थे | इनका क्षेत्र-विस्तार बिहार से लेकर असम तक फैला हुआ था |
सिद्धों की वैचारिक पीठिका –
सिद्ध परम्परा की शुरुआत बौद्ध धर्म की विकृति का परिणाम है जो, ईसा की प्रथम शताब्दी में बौद्ध धर्म हीनयान/महायान दो शाखाओं में विभाजित हो गया था | हीनयान में सिद्धांत पक्ष का प्राधान्य रहा, जबकि महायान में व्यावहारिक पक्ष का | हीनयान केवल विरक्तों, संन्यासियों को आश्रय देता था, महायान ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, गृहस्थ-संन्यासी सबको बैठा कर निर्वाण तक पहुँचा सकने का दावा करता था |
छठी-सातवीं शती में महायान वज्रयान और सहजयान दो उपविभागों में विभक्त हो गया | सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध के विकृत रूप इसी वज्रयान तथा सहजयान सम्प्रदाय से था तथा ये अशिक्षित व हीन जाति से सम्बन्ध रखते थे |
सिद्धों का प्रधान केंद्र –
‘श्रीपर्वत’ सिद्धों का प्रधान केंद्र था, वैसे ये बिहार से लेकर असम तक फैले हुए थे | बिहार से नालंदा और विक्रमशिला नामक प्रसिद्ध विद्यापीठ इनके अड्डे थे | बाद में ये ‘भोट’ देश को चले गए | इनका कार्यक्षेत्र बंगाल, असम, उड़ीसा और बिहार का पूर्वाञ्चल था |
सिद्धों की सँख्या –
राहुल सांकृत्यायन और प्रबोध बागची ने सिद्धों की सँख्या 84 (चौरासी) मानी है, इन सिद्धों का परिचय तिब्बती ग्रंथों में मिलता है, इन 84 सिद्धों में केवल पुरुष ही नहीं थे, बल्कि कुछ स्त्रियाँ भी थीं | सिद्धों में जिन्हें ‘योगिनी’ भी कहा गया है, उनमें स्त्रियों की सँख्या कुल (4) है, जिनके नाम कुछ इस प्रकार हैं – मणिभद्रा, मेखलापा, कनखलापा और लक्ष्मीकरा | ध्यातव्य है कि, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘लक्ष्मीकरा’ को योगिनी नहीं माना है |
राहुल सांकृत्यायन और प्रबोध बागची ने जिन (84) सिद्धों की सूची प्रकाशित की थी, उसके अनुसार चौरासी सिद्धों के नाम इस प्रकार हैं –
(84) चौरासी सिद्धों के नाम –
सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवि –
इनमें सर्वप्रथम सिद्ध कवि ‘सरहपा’ माने जाते हैं, जिनसे सिद्ध साहित्य का आरम्भ माना जाता है, इनके अतिरिक्त प्रमुख सिद्ध कवियों में शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्कुरिपा इत्यादि का नाम आता है |
इनमें सबसे ऊँचा स्थान ‘लुइपा’ का माना जाता है, और पांडित्य और कवित्व में बेजोड़, रहस्य-भावना परक गीत लिखने वाले ‘कण्हपा’ सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ विद्वान् और उच्चकोटि के माने जाते हैं | ये सिद्ध लोग अपने नाम के आगे ‘पा’ शब्द आदरार्थक के रूप में प्रयोग करते थे |
सिद्ध साहित्य
‘सिद्ध साहित्य’ क्या है ? आप जानते हैं बौद्ध धर्म दो शाखाओं में विभक्त हो गया था, हीनयान व महायान में | महायान जिसे वज्रयान भी कहते हैं, इन्हीं वज्रयानियों को सिद्ध कहा गया है | वज्रयानी परम्परा के सिद्धाचार्यों की वे रचनाएँ, जो ‘दोहाकोश’ व ‘चर्यापद’ के रूप में उपलब्ध हैं, जिनमें बौद्ध तांत्रिक मान्यताओं को वाणी मिली है, वह ‘सिद्ध साहित्य’ है |
दूसरे शब्दों में सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्त्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जनभाषा में लिखा, वह ‘सिद्ध साहित्य’ की सीमा में आता है | ‘सरहपा’ जिन्हें प्रथम सिद्ध कवि व हिंदी के प्रथम कवि के रूप में स्वीकारा गया है, इनसे सिद्ध साहित्य का आरम्भ माना जाता है | हालांकि इस सम्बन्ध में विविध मत अवश्य देखने को मिलते हैं, लेकिन सर्वसम्मति से ‘सरहपा’ से ही ‘सिद्ध साहित्य’ का आरम्भ मानना समीचीन है |
सिद्धों द्वारा दोहों, चर्यापदों और चर्यागीतों की रचना की गई, जो ‘सिद्ध साहित्य’ कहलाया | साधनावस्था से निकली सिद्धों की वाणी चर्यापद/चर्यागीत कहलाती है | ‘सिद्ध साहित्य’ में बौद्ध तांत्रिक सिद्धांतों को मान्यता दी गई | यद्यपि उनके समकालीन नाथ योगियों को भी ‘सिद्ध’ कहा जाता था परन्तु आगे चलकर जिस प्रकार शैवयोगियों के लिए ‘नाथ’ और बौद्ध तांत्रिकों के लिए ‘सिद्ध’ शब्द प्रचलित हो गया |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार ‘जो जनता तत्कालीन नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय त्रस्त होकर, निराशा के गर्त में गिरी हुई थी, उनके लिए सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया |
सिद्ध साहित्य के सम्बन्ध में किए गए शोध कार्य –
प्राचीन साहित्य को उपलब्ध कराने के लिए अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया | पिशेल, हरमन याकोबी, चंद्रमोहन घोष, पंडित विधुशेखर शास्त्री, महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री, डॉ० प्रबोध कुमार बागची, मुनि जिनविजय, महापंडित राहुल सांकृत्यायन आदि विद्वानों के भगीरथ प्रयासों से ही आज ‘सिद्ध-साहित्य’ के विषय में जानकारी प्राप्त करने में हम आज समर्थ हुए हैं |
वज्रयानी सिद्धों का साहित्य विशाल है, इस सम्प्रदाय के सिद्ध आचार्यों ने अपने ग्रंथों का प्रणयन केवल संस्कृत भाषा में ही नहीं किया, अपितु जन साधारण तक अपने सिद्धांतों को पँहुचाने के लिए लोकभाषाओं में भी ग्रंथों की रचना की |
यह खेद का विषय है कि, सिद्धों द्वारा रचित विपुल साहित्य अपने मूल रूप में आज भी उपलब्ध नहीं है | सर्वप्रथम महापंडित राहुल सांकृत्यायन एवं पं० हरप्रसाद शास्त्री जी ने नेपाल से उपलब्ध पांडुलिपियों को संकलित करके कुछ सिद्धों के चर्यागीतों, दोहाकोशों के सम्पादन और प्रकाशन का कार्य ‘बौद्धगान ओ दोहा’ नाम से सन् 1916 में ‘बंगीय साहित्य परिषद्’ कलकत्ता से किया |
इसके पश्चात् डॉ० प्रबोधचंद्र बागची ने तिल्लोपा, सरहपा, कण्हपा आदि के दोहों का संकलन करके ‘दूहा कोश’ नाम से प्रकाशित करवाया | सन् 1928 में तिब्बती पांडुलिपियों के आधार पर मोहम्मद शाकीदुल्ला ने ‘लेशा मिस्तोम्श’ नामक फ्रांसीसी ग्रन्थ में सरहपा और कण्हपा के दोहों और चर्यापदों का सम्पादन किया |
‘राहुल सांकृत्यायन’ ने तिब्बत से सिद्धों के अनेक दुर्लभ ग्रंथ प्राप्त किए | उनके चर्यापदों और दोहों को ‘हिंदी काव्यधारा’ शीर्षक से सम्पादित किया, इसी ग्रन्थ में उन्होंने सिद्धों द्वारा रचित अनेक रचनाओं का भी निर्देश किया परन्तु ये कृतियाँ अब अप्राप्य हैं |
सिद्ध साहित्य की रचनाएँ –
सिद्धों की रचनाएँ मुक्तक रूप में उपलब्ध हैं, इनके साहित्य को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(1) नीति या आचार सम्बन्धी साहित्य
(2) उपदेशपरक साहित्य
(3) साधना सम्बन्धी या रहसयवादी साहित्य
सिद्धों द्वारा रचित साहित्य तीन रूपों में उपलब्ध होता है, कुछ रचनाओं में सिद्धांत, मत, तत्त्व आदि का प्रतिपादन है और कुछ में तंत्र-मंत्र आदि कर्मकांडों का खंडन मिलता है | इन सिद्धों ने वज्रयान और सहजयान सम्बन्धी विचारों एवं सिद्धांतों को ही अपनी रचनाओं में प्रकट किया है |
सिद्धों का जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण था, इनकी साधना-पद्धति सहज साधना-पद्धति थी, जिसमें किसी भी प्रकार के बाह्य कर्मकांडों के लिए स्थान नहीं था | सिद्धों की रचनाओं में खंडन-मंडन की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है | इन्होंने मुक्तक शैली में दोहों, गीतों के रूप में लोकभाषा में, काव्य रचना की | यही सिद्धों की परम्परा नाथों से होती हुई आगे चलकर कबीर, दादू आदि संतों में विकसित होती है |
सिद्ध साहित्य की विशेषताएँ –
- इस साहित्य में तंत्र साधना पर अधिक बल दिया गया है |
- साधना पद्धति में शिव और शक्ति के युगल रूप की उपासना की जाती है |
- इसमें जातिप्रथा एवं वर्णभेद का विरोध किया गया है |
- इस साहित्य में ब्राह्मण धर्म एवं वैदिक धर्म का खंडन किया गया है |
- सिद्धों ने गुरु की महत्ता व अनिवार्यता पर बल दिया है |
- कष्टमय साधना के स्थान पर सहजमार्ग, सुखभोग को अपनाने की सिद्ध-संतों ने सलाह दी है |
- अन्तःसाधना पर बल दिया है व शास्त्र पंडितों की निंदा की है |
- बौद्धों की शून्य सम्बन्धी विचारधारा, शंकर के अद्वैतवाद, मायावाद का मार्ग भी सिद्धों ने प्रशस्त किया |
- सिद्धों में पञ्च मकार की दुष्प्रवृत्ति देखने को मिलती है |
यथा – सिद्ध साहित्य के पंचमकार – मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा, मैथुन |
सिद्ध साहित्य की भाषा –
सिद्ध-साहित्य के कवियों की भाषा संधा या संध्या कही जाती है, क्योंकि यह अपभ्रंश एवं हिंदी के संधि-काल की भाषा मानी जाती है | संधा भाषा अंतस् साधनात्मक अनुभूतियों को प्रतीकित करने वाली भाषा है, और सिद्धों की भाषा में ‘उलटबासी’ शैली का पूर्व रूप देखने को मिलता है |
मुनि अद्वयव्रज तथा मुनिदत्त सूरी ने सिद्धों की भाषा को ‘संधा’ अथवा ‘संध्या’ भाषा के नाम से पुकारा है | जिसका अर्थ होता है – कुछ स्पष्ट व कुछ अस्पष्ट |
सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवियों का परिचय एवं उनकी रचनाएँ –
‘सरहपा’ संक्षिप्त परिचय –
सिद्धों में सर्वप्रमुख और वज्रयान-सहजयान के आदिसिद्ध ‘सरहपा’ माने जाते हैं | इन्हें सरहपाद, सरोजवज्र, पद्मवज्र, राहुलभद्र आदि नामों से भी पुकारा जाता है | ‘सरहपा’ हिंदी के प्रथम कवि के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं, और इन्हीं की रचनाओं से हिंदी साहित्य का आरम्भ भी माना जाता है |
‘सरहपा’ जाति से ब्राह्मण थे | तारानाथ के अनुसार यह शैशवकाल से ही वेद-वेदांगों के ज्ञाता थे | मध्यदेश में जाकर इन्होंने त्रिपिटकों का अध्ययन किया | ‘राहुलभद्र’ के रूप में ये कई वर्षों तक नालंदा में रहे, वहीं इन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और तदुपरांत नालंदा में ही आचार्य के रूप में कार्य करने लगे |
कालांतर में उड़ीसा के एक आचार्य से इन्होंने दीक्षा ले ली और महाराष्ट्र में जाकर एक सर बनाने वाली कन्या को महामुद्रा बनाकर वन में रहने लगे, स्वयं भी सर बनाने का कार्य करने लगे, जिसके कारण इनका नाम ‘सरह’ पड़ा |
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ‘सरहपा’ ‘हरिभद्र’ नामक बौद्ध दार्शनिक के शिष्य थे, हरिभद्र ‘शान्तरक्षित’ के शिष्य थे श्रद्धालुओं ने सम्मानसूचक ‘पाद’ या ‘पा’ शब्द जोड़कर इन्हें ‘सरहपाद’ या ‘सरहपा’ कहकर सम्बोधित किया | उन्होंने जातिगत भेदभाव का सदैव विरोध किया | स्वयं ब्राह्मण जाति के होते हुए भी निम्न जाति की कन्या को अपनी महामुद्रा बनाकर अपनी आध्यात्मिक साधना के मार्ग में प्रवृत्त हुए | भील जाति के ‘शबरपा’ को अपना शिष्य बनाया | सरहपा ने ‘श्री पर्वत’ (आंध्र प्रदेश) पर वज्रयान की कठिन साधना की थी |
सरहपा वैदिक साहित्य और बौद्ध साहित्य एवं दर्शन के जानकार थे, वे बहुश्रुत एवं बहुपठित थे | उन्होंने अपने काल में हुए बौद्धिक विचार-विमर्श में सक्रिय रूप से भाग लिया था | शैव, शाक्त, पाशुपत, कापालिक. वैष्णव एवं समकालीन सभी सम्प्रदायों के विचारकों से उनका बौद्धिक संपर्क हुआ | उन्होंने इन सम्प्रदायों के बाह्याचारों और मिथ्या आडम्बरों का अपने दोहों और चर्यापदों में खंडन भी किया |
जन्म-समय –
इनके जीवन के विषय के प्रामाणिक जानकारी अत्यल्प है, जो हैं उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है | डॉ० विनयतोष भट्टाचार्य ने इनका जन्म-काल विक्रमी संवत् 690 माना है, जबकि राहुल सांकृत्यायन जन्म-काल 769 ईसवीं मानते हैं, जिससे अधिकांश विद्वान् सहमत हैं |
जन्म-स्थान –
सरहपा के जन्म-स्थान के विषय में भी अनेक मत मिलते हैं | एक तिब्बती जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म-स्थाम उड़ीसा माना जाता है जबकि, एक अन्य जनश्रुति सरहपा को सहरसा जिले के पंचगछिया गाँव को इनका जन्म-स्थान मानती है |
महापंडित राहुल सांकृत्यायन प्राच्य देश की राज्ञ नगरी को इनका निवास-स्थान मानते हैं |
सरहपा की रचनाएँ –
इनके द्वारा रचित कुल 32 ग्रंथों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनमें ‘दोहाकोश’ सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है | ‘दोहाकोश’ रचना का सम्पादन ‘राहुल सांकृत्यायन’ के द्वारा किया गया था | इन्होंने अपनी रचनाओं में पाखण्ड-आडम्बर का विरोध किया है तथा गुरु सेवा को महत्त्व दिया है |
चौपाई + दोहा पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम इन्हीं की रचनाओं में पढ़ने को मिलता है, इनके काव्य ‘खंडकाव्य’ श्रेणी में शामिल किए जाते हैं | सरहपा की भाषा हिंदी है, जिसमें अपभ्रंश का प्रभाव देखने को मिलता है |
सरहपा की जो रचनाएँ उपलब्ध हैं उनके नाम निम्न्वत् हैं –
- बुद्धकपालतन्त्र पंजिका “ज्ञानवती’
- बुद्धकपाल साधन
- बुद्धकपाल मण्डलविधि
- त्रैलोक्यवशकर लोकेश्वरसाधन
- त्रैलोक्यवशकरावलोकितेश्वरसाधन
अपभ्रंश में रचित सरहपा की रचनाएँ –
- दोहाकोशगीति
- दोहाकोशनाम चर्यागीति
- दोहाकोशोप देशगीति
- क ख दोहा नाम
- क ख दोहा टिप्पण
- काय कोशामृत वज्रगीति
- वाक्कोषरुचिरस्वर वज्रगीति
- चित्तकोष वज्रगीति
- कायवाक् चित्तामनसिकार
- दोहाकोश महामुद्रोपदेश
- द्वादशोपदेशगाथा
- स्वाधिष्ठानक्रम
- तत्त्वोपदेश शिखर दोहा – गीतिका
- भावनादृष्टि चर्याफल दोहागीति
- वसन्ततिलक दोहाकोश गीतिका
- महामुद्रोपदेश वज्रगुहा गीति
शबरपा –
सिद्ध कवि शबरपा शबरों का-सा जीवन व्यतीत करने के कारण शबरपा कहलाए | इनका जन्म क्षत्रिय कुल में 780 ई० में हुआ था | इन्होंने सरहपा से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी अर्थात् सरहपा इनके गुरु थे | ‘चर्यापद’ इनकी प्रसिद्ध रचना है, जिसमें ये माया-मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल देते हैं और इसे ही महासुख की प्राप्ति का पंथ बतलाते हैं |
शबरपा की प्रमुख रचनाएँ हैं –
- चर्यापद
- महामुद्रा वज्रगीति
- वज्रयोगिनी साधना
लुइपा –
ये राजा धर्मपाल के शासनकाल में कायस्थ परिवार में उत्पन्न हुए थे | डॉ० नगेंद्र के अनुसार 84 सिद्धों में इनका स्थान प्रथम एवं सबसे ऊँचा माना जाता है | ये शबरपा के शिष्य मानते जाते हैं, और इनकी साधना के प्रभाव को देखकर उड़ीसा के तत्कालीन राजा तथा मंत्री इनके शिष्य हो गए थे | इनकी रचनाओं में रहस्य भावना की प्रधानता देखने को मिलती है |
लुइपा की प्रमुख रचना है – ‘लुइपादगीतिका’ बुद्धोदय, अभिसमयविभग, गीतिका |
डोम्भिपा –
इनका जन्म मगध के क्षत्रिय वंश में 840 ई० के लगभग हुआ था, विरूपा से इन्होंने दीक्षा ली थी | इनके द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 21 (इक्कीस) बतलाई जाती है | जिनमें डोम्बिगीतिका, योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश आदि विशेष प्रसिद्ध रचनाएँ हैं |
कण्हपा –
इनका जन्म कर्नाटक के ब्राह्मण वंश में 820 ई० में हुआ था और ये बिहार के सोमपुरी स्थान पर रहते थे | ‘जालंधरपा’ को इन्होंने अपना गुरु बनाया था और कई सिद्धों ने इनकी शिष्यता स्वीकार की थी | इनके द्वारा लिखे (74) ग्रन्थ बतलाए जाते हैं, जिनमें अधिकांश दर्शन विषय पर लिखे गए हैं |
रहस्यात्मक भावनाओं से परिपूर्ण गीतों की रचना करके ये हिंदी कवियों में प्रसिद्ध हुए | इन्होंने अपनी रचनाओं में शास्त्रीय रूढ़ियों का भी खंडन किया था |
इनकी प्रमुख रचनाओं के नाम हैं – चर्याचर्य विनिश्चय, कण्हपाद गीतिका |
कुक्कुरिपा –
इनका जन्म कपिलवस्तु के ब्राह्मण वसंह में माना जाता है | इनके जन्मकाल के विषय में ठीक-ठीक पता नहीं चल सका है | ‘चर्पटीया’ इनके गुरु थे, इनके द्वारा रचित ‘योगभावनोपदेश’ तथा ‘चर्यापद’ सहित 16 ग्रन्थ (सोलह) ग्रन्थ बतलाए जाते हैं |
निष्कर्ष –
उपर्युक्त प्रमुख सिद्ध कवियों के अतिरिक्त अन्य सिद्ध कवि भी जन-भाषा में अपनी वाणी का प्रचार पद्य में करते थे, किन्तु उनमें कवित्त्व का उतना अंश नहीं, जिस आधार पर उन्हें साहित्य के विकास में योगदाता माना जा सके |
जिन सिद्ध कवियों की चर्चा अभी तक की गई है, उनका साहित्य ही हिंदी के सिद्ध-साहित्य के लिए गौरव का विषय है | इन कवियों ने हिंदी कविता की जो प्रवृत्तियाँ आरम्भ कीं, उनका प्रभाव भक्तिकाल तक चलता रहा | रूढ़ियों के विरोध का अक्खड़पन, जो कबीर आदि की रचनाओं में देखने को मिलता है, इन सिद्ध कवियों की ही देन है |
फिर भी साहित्य के विकास में भले ही कुछ सिद्ध रचनाओं को महत्त्व न दिया जाता हो, लेकिन परीक्षा की दृष्टि से कुछ अन्य सिद्ध कवियों की रचनाओं को भी आपको संज्ञान में अवश्य रखना चाहिए |
सिद्ध साहित्य के अन्य कवि एवं उनकी रचनाएँ –
- आर्यदेवपा – कावेरीगीतिका
- कंवणपा – चर्यागीतिका
- कम्बलपा – असंबन्ध-सर्ग दृष्टि
- गुंडरीपा – चर्यागीति
- जयनंदीपा – तर्क मुदंगर कारिका
- जालंधरपा – वियुक्त मंजरीगीति, हुंकारचित्त, भावनाक्रम
- दारिकपा – महागुह्य तत्त्वोपदेश
- धामपा – सुगत दृष्टिगीतिकाचर्या
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