सूरदास जी की जयंती विशेष पर लेख
सूरदास परिचय
“देखन कौ घनश्याम की माधुरी,
चाहिए सूर की आँधरी आँखें।”
आज भारतीय काल-गणना एवं हिंदी पञ्चाङ्ग के अनुसार वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि है। यद्यपि, हर तिथि, वार और दिवस प्रायः सामान्य ही होते हैं किंतु यह तिथि भारत की संस्कृति, साहित्य और सामाजिक चिंतन में समृद्धि प्रदान करने वाली तिथि है। इस तिथि पर विभिन्न विक्रम संवत्सरों में ऐसे दो महापुरुषों का जन्म हुआ, जिन्होंने भारतीय दर्शन में नए आयाम स्थापित किए हैं। इनमें प्रथम ज्ञान, योग, वेदांत के प्रस्तोता और अद्वैतवाद के प्रवर्तक ‘आद्यगुरु शंकराचार्य’ हैं और दूसरे पुष्टिमार्ग पर चलकर ‘शुद्धाद्वैतवाद’ रूपी भक्ति प्राप्त करने वाले ‘सूरदास’ हैं।
आद्यगुरु शंकराचार्य के विषय में सर्वविदित है कि, उन्होंने अपनी अल्पायु में ही भारत की चारों दिशाओं के क्षेत्र जो वर्तमान में जगन्नाथ पुरी, बद्रीनाथ, द्वारका और चिक्कमागलुरु के रूप में प्रसिद्ध हैं, उनमें क्रमशः गोवर्धन मठ, ज्योतिर्मठ, शारदा मठ और श्रृंगेरी मठ की स्थापना की। इन मठों की स्थापना के मूल में संभवतः आद्यगुरु का उद्देश्य ज्ञान और शिक्षा रूप में भक्ति को संपूर्ण भारत में प्रचारित करना होगा किंतु बिना रस के भक्ति भी नीरस प्रतीत होती है और यही कारण है कि, भक्त और ज्ञानी एक-दूसरे के पर्याय नहीं, विलोम हैं। यही कारण है कि तुलनात्मक रूप से कालखण्ड में निर्गुण ज्ञान के बोझ से लदी भक्ति उतनी सामर्थ्यवान नहीं हो पाई जितनी सगुण रूप में प्रवाहित भक्ति प्रकट हुई। पन्द्रहवीं और सौलहवीं शताब्दी में इस भक्ति रस के कारण ही हिंदी साहित्य संसार में एक ऐसे युग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे ‘स्वर्णयुग’ कहा जाने लगा।
इस स्वर्णयुग को जिस व्यक्तित्व ने अपने कृतित्व से सूर्य समान कांति प्रदान की, वह महाकवि सूरदास ही हैं। संवत् 1535(1478ई.) में ब्रजक्षेत्र में सीही स्थान (अथवा रुनकता) पर निर्धन ब्राह्मण के पुत्र रूप में जन्म लेने वाले सूरदास जन्मान्ध थे। उनकी इस शारिरिक विसंगति ने उन्हें समाज से पृथक कर दिया और सूर को अंतर्मुखी बना दिया। यह भगवदीय संयोग ही था कि समाज द्वारा बहिष्कृत व्यक्ति को ईश्वर ने अपनी भक्ति का दास बना दिया। एक भक्त को सांसारिक मोह-माया कब तक बाँध सकती है और जिसकी बाह्य और अंतर्दृष्टि में केवल परमात्मा का वास हो, उसे एकांत साधना के लिए गृहस्थी के संबंधों को छोड़ना ही पड़ता है। यही कारण है कि सूरदास भी एकान्त स्थान की खोज में घर से निकल पड़े और गऊघाट पर आकर रहने लगे।
जहाँ एक ओर एकांत की खोज में सूर ने गऊघाट पर वास किया, वहीं दूसरी ओर भारत में भक्ति के नए सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले वल्लभाचार्य ने उन्हीं दिनों गऊघाट पर आकर विश्राम किया। गऊघाट पर वल्लभाचार्य के आगमन की सूचना से सूरदास को उनसे मिलने की लालसा हुई और वह उनसे भेंट करने पहुँच गए। आचार्य वल्लभ ने जब इन्हें कुछ सुनाने के लिए कहा, तो सूर कहने लगे –
“प्रभु हौं स पतितन को टीकौ।”
* * *
“हौं हरि सब पतितन को नायक।”
सूरदास का यह पद सुनकर उन्हें डाँटते हुए वल्लभाचार्य कहने लगे-
“सूर ह्वै कै ऐसो घिघियात काहे को हौ, कछु भगवत् लीला वर्णन करि।”
तत्पश्चात् सूरदास ने वल्लभाचार्य को संबोधित करते हुए एक और पद सुनाया –
“दृढ इन चरण कैरो भरोसो।
श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो॥
साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो॥
‘सूर’ कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो॥”
कहते हैं कि इसे सुनकर वल्लभ ने उन्हें हृदय से लगा लिया और सूरदास ने उन्हें अपना गुरु मान लिया। यह वल्लभाचार्य का ही प्रभाव था कि दास्य भक्ति में ईश आराधन करने वाले सूरदास साहित्य में सख्य भक्ति के प्रथम पुरोधा बन गए। उन्हें वल्लभ का तो सान्निध्य प्राप्त हो ही चुका था और कालांतर में जब संवत् 1576 में पूरनमल खत्री द्वारा गोवर्द्धन में श्रीनाथ जी मंदिर बनाया गया तो यह वल्लभ संप्रदाय का केंद्र बन गया। इस मंदिर में शुद्धाद्वैत बाल स्वरूप कृष्ण की मनमोहक मूर्ति स्थापित की गई और एक दिन में आठ बार अलग-अलग प्रकार से आरती की जाने लगीं जैसे – मंगला, ग्वाल, राजभोग और उत्थापन आदि। आज भी श्रीनाथ जी के मंदिर में इसी प्रकार से आठों प्रकार की आरतियां की जाती हैं किंतु बाद में विदेशी आक्रांताओं के भय से श्रीनाथ जी की मूर्ति को गोवर्धन से उदयपुर ले जाया गया और एक स्थान पर विराजित किया गया, जिसे हम ‘नाथद्वारा’ के नाम से जानते हैं। वल्लभ संप्रदाय ही नहीं बल्कि आज यह मंदिर सभी भक्तों के लिए आस्था का प्रमुख केंद्र बन गया है।
बहरहाल, इन आठ प्रकार की आरतियों के लिए आठ कवियों को नियुक्त किया गया, जो वल्लभ और उनके पुत्र विट्ठलनाथ के प्रमुख शिष्य थे। यह कवि प्रत्येक दिवस एक नवीन पद की रचना करके श्रीनाथ जी को समर्पित करते, जिसमें प्रथम आरती ‘मंगला’ के समय सूरदास अपने काव्य की अर्थगोपन-शैली से सभी को मंत्रमुग्ध कर देते थे। बाद में, वल्लभाचार्य की मृत्यु के पश्चात् बिट्ठल उनकी गद्दी पर बैठे तो संवत् 1622 (1565ई.) में उनकी ‘अष्टछाप’ की स्थापना की और सूर को ‘पुष्टिमार्ग का जहाज’ घोषित किया।
गोवर्द्धन स्थित चन्द्रसरोवर के समीप पारसौली गाँव में सूरदास ने अपने जीवन की अंतिम अवस्था में वास किया। इससे पूर्व ही वह ‘सूर सागर’ एवं ‘साहित्य लहरी’ जैसे ग्रन्थों की रचना कर चुके थे और हिंदी साहित्याकाश में सूर्य के समान सुशोभित हो गए थे। यह तो हम जानते ही हैं कि वह बालकृष्ण की भक्ति में वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आये हैं और ‘सूर सागर’ के भ्रमरगीत में उन्होंने निर्गुण ब्रह्म का खंडन करते हुए जिस प्रकार सगुणोपासना को संबल प्रदान किया है, वह साहित्य संसार की अनुपम धरोहर है। सगुणोपासक रसिक शिरोमणि सूर का यह पद देखिए –
“रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरिप रहीं स्यामहि, का पै लेहिं उधारै॥”
‘साहित्य लहरी’ के दृष्टिकूट पदों की संरचना देखकर साहित्याचार्यों ने उनकी सूक्ष्म काव्य दृष्टि को भली-भाँति स्वीकार किया है। संवत् 1640 (1583ई.) में लगभग एक सौ पांच वर्ष की आयु में सूरदास की मृत्यु हो गई और अष्टछाप का जहाज परिवर्तन के सागर में डूब गया –
“पुष्टिमारग को जहाज जात है सो जाको कछु लेनो होय सो लेउ।”
अतएव, सूरदास का शरीर नष्ट हो चुका है किंतु अपने साहित्य के माध्यम से शब्द-रूप में वह सदैव हमारे मध्य उपस्थित रहेंगे।
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लेखक : माधव शर्मा, शोधार्थी (हिंदी)
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